● सूर्यकांत उपाध्याय

राम जी लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे। कुछ समय पश्चात उन्होंने विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और अंगद आदि को अयोध्या से विदा कर दिया। सभी ने सोचा कि प्रभु हनुमान जी को बाद में विदा करेंगे पर आश्चर्य हुआ जब हनुमान जी को विदा ही नहीं किया गया। प्रजा के बीच चर्चा होने लगी कि आखिर सब चले गए पर हनुमान जी अयोध्या में ही क्यों रह गए।
दरबार में जब यह विषय उठा तो सबसे पहले माता सीता से कहा गया कि आप हनुमान जी से कहें। माता सीता ने विनम्रता से कहा, ‘लंका में जब मैं व्याकुल होकर समय काट रही थी, तभी हनुमान जी प्रभु की मुद्रिका लेकर पहुँचे और मुझे धैर्य दिलाया। ऐसे उपकारी पुत्र समान हनुमान से मैं कैसे कह सकती हूँ कि वे अयोध्या छोड़कर चले जाएँ?’
फिर लक्ष्मण जी से कहा गया। उन्होंने कहा, ‘लंका के युद्ध में जब मैं मरणासन्न पड़ा था, तब संजीवनी लेकर हनुमान जी ने मेरा जीवन बचाया। मैं किस अधिकार से कहूँ कि वे अयोध्या से चले जाएँ?’
इसके बाद भरत जी की बारी आई। वे रो पड़े और बोले, ‘राम जी को वनवास दिलवाने का कलंक तो मुझ पर पहले ही है। यदि हनुमान जी को भी अयोध्या से विदा कराने का दोष मेरे माथे पर आ जाए तो मैं और अधम हो जाऊँगा। इसलिए मैं तो ऐसा वचन नहीं दे सकता।’
अब सबकी दृष्टि शत्रुघ्न पर गई। शत्रुघ्न जी मुस्कराकर बोले, ‘पूरी रामायण में मैंने कहीं कोई विशेष वचन नहीं दिया। तो आज ही क्यों बोलूँ और वह भी हनुमान जी को अयोध्या छोड़ने के लिए? मैं यह कार्य नहीं कर सकता।’
तब माता सीता ने स्वयं राम जी से कहा, ‘प्रभु! आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं, फिर भी देख रही हूँ कि आप स्वयं हनुमान जी से कहने में संकोच कर रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों?’
राम जी ने गम्भीर स्वर में कहा, ‘देवी! हनुमान जी के उपकारों का ऋण मैं कभी चुका ही नहीं सकता। उनके लिए मेरे मन में इतना सम्मान है कि सामने होते हुए भी मैं कह नहीं पाता कि वे अयोध्या छोड़ दें। सच्चाई यह है कि हनुमान जी का कर्ज़ उतारना राम के लिए भी सरल नहीं है।’
माता सीता ने आग्रह किया कि कम से कम सभा में जाकर हनुमान जी को कोई पद या सम्मान देकर उनका ऋण उतारने का प्रयास करें।
दूसरे दिन राज्यसभा में राम जी ने सबके सामने कहा, ‘हनुमान! तुमने मेरे लिए जो किया है, उसका बदला कोई पद देकर नहीं चुकाया जा सकता। फिर भी जो तुम्हारी इच्छा हो, वह मांग लो।’
सभा में सब उत्सुक थे कि हनुमान जी क्या मांगेंगे। हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले, ‘प्रभु! आपने विभीषण को लंका, सुग्रीव को किष्किंधा और अंगद को युवराज का पद दिया। पर मुझे राजपद नहीं चाहिए क्योंकि उसमें अहंकार का भय होता है। मुझे तो केवल आपके चरणों में स्थान चाहिए।’
यह सुनकर पूरा दरबार भाव-विभोर हो उठा। राम जी ने हनुमान को हृदय से लगा लिया और कहा, ‘हनुमान! तुमसे बड़ा भाग्यशाली और कोई नहीं क्योंकि तुम्हारा हृदय सदा मेरे चरणों से जुड़ा रहता है।’
हनुमान जी का कर्ज कोई भी चुका नहीं सकता। प्रभु राम भी स्वयं को उनका ऋणी मानते रहे। यही कारण है कि हनुमान जी आज भी भक्तों के हृदय में रामभक्त और परम उपकारी के रूप में पूजित हैं।