● सूर्यकांत उपाध्याय

एक सज्जन का नियम था कि वे प्रतिदिन तीन ग़रीब लोगों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करते थे।
एक दिन बहुत खोजने पर भी कोई ग़रीब न मिला।
दोपहर हो गई। त्योहार निकट था। दुकानों पर नाना प्रकार की मिठाइयाँ और चीनी के खिलौने सजे थे। एक हलवाई ने चीनी से इंसान की आकृति बना रखी थी।
सज्जन ने देखा तो सोचा, ‘आज ग़रीब तो मिले नहीं, क्यों न चीनी से बने इन इंसानों को ही ले चलूँ। इन्हीं को भोग लगाकर भोजन कर लूँगा।’
उन्होंने तीन चीनी के आदमीनुमा मिठाइयाँ खरीदीं और घर लौटे। घर पहुँचे तो देखा कि वहाँ तीन असली निर्धन लोग खड़े हैं।
सज्जन ने उनका स्वागत करते हुए कहा, ‘भाइयों! मैं तो सुबह से आपको ही खोज रहा था। आइए, भोजन करें।’
उन्होंने तीनों ग़रीबों को बैठाया और पत्नी से बोले, ‘तुम जल्दी से भोजन बनाओ, मैं बाज़ार से दही ले आता हूँ।’
इतना कहकर वे दही लेने चले गए और पत्नी भोजन बनाने लगी।
तभी उनका पुत्र भीतर आया। उसने थैले में रखी चीनी की आदमीनुमा मिठाइयाँ देखीं और बोला, ‘माँ! एक आदमी तो मैं खाऊँगा।’
साथ वाले कमरे में बैठे निर्धनों ने यह बात सुनी तो घबरा गए।
इतने में माँ की आवाज़ आई, ‘इतना उतावला क्यों होता है? अभी तेरे पिताजी आएँगे। यहाँ तीन आदमी हैं। एक तुम खा लेना, एक पिताजी खाएँगे और एक मैं खाऊँगी।’
यह सुनते ही तीनों निर्धन काँप उठे। सोचने लगे, ‘हे भगवान! हम कहाँ फँस गए? ये लोग तो आदमियों को भी खाते हैं! ये मनुष्य नहीं, राक्षस मालूम पड़ते हैं।’
तभी एक व्यक्ति लघुशंका का बहाना बनाकर बाहर निकला। फिर दूसरा और उसके बाद तीसरा भी। तीनों ने अपने-अपने जूते उठाए और भागने लगे।
उसी समय वे सज्जन दही लेकर लौटे। पत्नी से पूछा, ‘क्या हुआ?’
पत्नी बोली, ‘मुझे तो पता नहीं, वे लघुशंका जाने की बात कह रहे थे। न जाने क्यों भाग रहे हैं।’
सज्जन तो सुबह से भूखे थे। वे उन तीनों निर्धनों के पीछे भागे और पुकारते हुए बोले, ‘भाइयों! कहाँ भागे जाते हो? हम तो सुबह से भूखे हैं।’
तीनों आदमी भागते-भागते चिल्लाए, ‘आज ये दुष्ट हमें ही खाकर अपनी भूख मिटाएँगे!’
आख़िरकार सज्जन ने उन्हें पकड़ लिया और सारी बात समझाई। उन्होंने चीनी से बने आदमीनुमा मिठाइयों की बात बताई। तब जाकर तीनों निर्धनों की जान में जान आई। फिर सबने मिलकर प्रेमपूर्वक भोजन किया।
सीख: कभी-कभी हमारी सुनी बातें भी आधा सच होती हैं।
