
● सूर्यकांत उपाध्याय
एक साधु महाराज प्रतिदिन रामायण की कथा सुनाते थे। उनका नियम था कि कथा शुरू करने से पहले वे “आइए हनुमंत जी बिराजिए” कहकर आह्वान करते और फिर प्रवचन प्रारंभ होता।
हर दिन एक वकील साहब भी कथा सुनने आते। एक दिन उनके मन में संदेह उठा, क्या वास्तव में हनुमान जी गद्दी पर आते हैं? उन्होंने साधु से प्रश्न किया।
महाराज ने समझाया कि आस्था को सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए, यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेम है। पर वकील नहीं माने और सबूत की मांग करते रहे।
आख़िर साधु ने कहा, “कल प्रमाण दूँगा। गद्दी आज अपने घर ले जाओ और कल कथा में लेकर आओ। जब मैं आह्वान करूँगा, तब तुम गद्दी उठाना। यदि गद्दी उठ गई तो मान लेना हनुमान जी नहीं हैं और यदि न उठा पाए तो मानना कि वे विराजमान हैं।”
दोनों में शर्त भी तय हुई। वकील ने कहा, “यदि मैं गद्दी न उठा सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा लूँगा।” साधु बोले, “यदि मैं पराजित हुआ तो कथा वाचन छोड़कर तुम्हारे दफ़्तर में चपरासी बन जाऊँगा।”
अगले दिन कथा पंडाल में भारी भीड़ जुटी। साधु ने नेत्र सजल कर मंगलाचरण किया और बोले, “आइए हनुमंत जी बिराजिए।” फिर वकील को बुलाया गया।
सभी की निगाहें वकील पर टिक गईं। उन्होंने गद्दी उठाने का प्रयास किया, लेकिन हाथ गद्दी तक पहुँच ही न पाया। तीन बार कोशिश की पर असफल रहे। पसीने से लथपथ होकर वे साधु के चरणों में गिर पड़े और बोले, “महाराज! गद्दी उठाना तो दूर, मैं उसे छू भी न सका। मैं अपनी हार स्वीकार करता हूँ।”
महाराज ने करुणा से उन्हें उठा कर गले लगा लिया। दोनों के नेत्र सजल हो उठे थे।
सीख: श्रद्धा और भक्ति से की गई आराधना में अपार शक्ति होती है। मानो तो देव, न मानो तो पत्थर।