
● सूर्यकांत उपाध्याय
पेट्रोल पंप पर कार रोकते ही रंजीत के सामने एक झुर्रियों से भरा चेहरा आ खड़ा हुआ, “बेटा! गाड़ी साफ कर दूँ?”
रंजीत ने जेब से बटुआ निकाला, “अंकल, आप इसे रख लीजिए, कुछ खा लेना।” बुज़ुर्ग की आँखों में चमक थी, स्वर में दृढ़ता, “नहीं बेटा! मैं भीख नहीं लेता। दो रोटी तो अब भी अपनी मेहनत से कमा लेता हूँ।”
बातों में धीरे-धीरे पूरा सच सामने आ गया। कभी घर था, जिसे बेचकर बच्चों को पढ़ाया, काबिल बनाया। आज एक बेटा विदेश में है, दूसरा इसी शहर में डॉक्टर। बंगला, गाड़ी, वैभव सब है… मगर पिता के लिए एक कोना नहीं।
बुज़ुर्ग ने सूखी हँसी के साथ कहा, “गुज़ारा भत्ता अदालत से मिल सकता है, पर बच्चों का स्नेह और सम्मान नहीं।”
रंजीत अवाक रह गया। वह झुककर बोला, “अंकल, मेरे शोरूम में काम कर लीजिए। मेहनत के बदले पूरा हक़ मिलेगा।”
बुज़ुर्ग की हथेलियाँ थम गईं। उनके चेहरे पर आंसुओं के बीच स्वाभिमान की रोशनी झिलमिलाने लगी। वे तैयार हो गए। उनकी आँखों में एक सुकून दिखने लगा, आत्मसम्मान का।
सच है-
माँ-बाप अपनी पूरी ज़िंदगी बच्चों को सँवारने में लगा देते हैं, लेकिन जब वही बच्चे सक्षम हो जाते हैं तो बुज़ुर्ग माता-पिता को सँभालने की ताक़त क्यों खो बैठते हैं?