● सूर्यकांत उपाध्याय

कथा यहीं से शुरू होती है, जहाँ प्रेम बोल नहीं सकता पर समर्पण बोलने लगता है।
वृंदावन छोड़कर जब कृष्ण मथुरा और फिर द्वारका चले गए तो राधा का नाम जैसे धर्मग्रंथों और इतिहास से ही गायब हो गया।
फिर भी कुछ संतों की वाणी, कुछ प्राचीन ग्रंथ और लोकश्रुतियाँ यह कहती हैं कि यह प्रेम मौन रहते हुए भी सदियों तक जीवित रहा।
वर्षों बाद जब वृंदावन के लोग द्वारका कृष्ण से मिलने निकले, वृद्ध राधा ने भी मन में संकल्प लिया “मैं उसे देखूँगी, पर एक शब्द भी नहीं पूछूँगी।”
रास्ते भर वह सोचती रहीं, कृष्ण से मिलूँ तो क्या कहूँ? रोऊँगी या हँसूंगी? क्या उनसे पूछूँ कि क्यों लौटे नहीं?
द्वारका का दृश्य,
राजमहल में रुक्मिणी के साथ सिंहासन पर बैठे कृष्ण को देखकर राधा मौन हो गईं। कुछ कहने का साहस नहीं, बस एक सेविका बनकर अपने प्रेम को छुपा लिया। हर दिन उन्होंने राजमहल में कार्य किया, हर क्षण कृष्ण को देखा, पर कभी सामने नहीं आईं।
यही था उनका प्रेम,अकथित पर जिया गया।
जब शरीर ने साथ देना बंद किया, साँसें धीमी पड़ गईं, राधा द्वारका छोड़ चलीं।
कृष्ण जानते थे, यह मिलन अंतिम होगा।
वे स्वयं उनके पास आए और मृदुता से पूछा, “क्या चाहती हो, राधे?”
राधा मुस्कराईं और कहा, “एक आख़िरी बार वह बाँसुरी बजा दो…”
कृष्ण ने बाँसुरी उठाई। धुन वही थी, वृंदावन वाली, हर स्वर में वह मिलन था जो कभी हुआ ही नहीं, हर ताल में वह विरह था जो कभी समाप्त नहीं हुआ।
बाँसुरी बजती रही… और राधा कृष्ण में लीन हो गईं।
कृष्ण ने बाँसुरी तोड़ी, उसे यमुना में बहा दिया और प्रण लिया, “अब जीवन भर बाँसुरी नहीं बजाऊँगा…”
एक प्रेयसी थी मौन, फिर भी सब कुछ कहती।
एक प्रेमी था राजमहल में, पर उसकी आँखें अब भी वृंदावन खोजती थीं।
और बाँसुरी?
वो अब भी बजती है, हर उस दिल में जहाँ राधा चुपचाप बैठी है।