
● सूर्यकांत उपाध्याय
आशीष स्कूल से लौटते समय लिफ्ट में अपने पड़ोसी ध्रुव से मिला। ध्रुव ने जेब से नया आईफोन निकालकर दिखाया और बोला, ‘आज पापा ने दिलाया है। आजकल जिसके पास आईफोन नहीं, लोग उसे गरीब समझते हैं।’
यह सुनकर आशीष का मन खिन्न हो गया। घर पहुंचकर वह चुपचाप कमरे में चला गया।
आशीष, अरुण जी और वैशाली जी का इकलौता बेटा था। अरुण जी की सैलरी से फ्लैट और गाड़ी की ईएमआई भरने के बाद मुश्किल से खर्च चलता था। वैशाली जी ने बेटे को समझाया, ‘बेटा, ऐसा नहीं कहते। हमने बड़ी मुश्किल से यह घर खरीदा है।’ लेकिन आशीष नाराज होकर बोला, ‘बस बहाने मत बनाइए। पापा को कहिए न, कोई बड़ी कंपनी में नौकरी करें।’
मां को गुस्सा आ गया, ‘तुझे लगता है पापा जानबूझकर कम सैलरी की नौकरी करते हैं? तेरी पढ़ाई का खर्च उठा रहे हैं, वही काफी है।’
शाम को अरुण जी ने भी साफ कह दिया कि आईफोन की उम्मीद न करे। आशीष आहत होकर चुप हो गया। कुछ दिनों बाद वह अचानक घर से गायब हो गया और एक खत छोड़ गया, ‘पापा, मैं घर छोड़कर जा रहा हूं। अब कुछ बनकर ही लौटूंगा।’
आशीष ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुंचा। भूख लगने पर एक होटल में गया। वहां लगभग पैंतालीस साल का कमजोर वेटर खाना लेकर आया। आशीष ने होटल मालिक से कहा, ‘इसे हटाकर किसी मजबूत को रखो।’
मालिक ने बताया, ‘यह आदमी कभी अमीर घर का बेटा था। नाराज होकर घर छोड़ दिया। जब लौटा तो मां-बाप गुजर चुके थे और संपत्ति रिश्तेदारों ने हड़प ली। तब से यही काम कर रहा है, शायद अपनी गलती का प्रायश्चित।’
यह सुनकर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसने तुरंत पापा को फोन किया, ‘पापा, मुझसे गलती हो गई। अब कभी जिद नहीं करूंगा। कल तक घर लौट आऊंगा।’
अरुण जी बोले, ‘बेटा, कहां है तू, मैं लेने आ जाऊं।’
आशीष ने जवाब दिया, ‘नहीं पापा, मैं खुद आ रहा हूं।’
उस रात वह ट्रेन पकड़कर घर लौट पड़ा।
जीवन का वह सबक, जो माता-पिता की समझाइश से नहीं सीखा, उसने ठोकर खाकर सीख लिया था कि दौलत और दिखावे से बड़ा जीवन और परिवार होता है।