■ सूर्यकांत उपाध्याय
राजा पृथु एक सुबह घोड़ों के अस्तबल पहुँचे। उसी समय एक साधु भिक्षा माँगने आया। क्रोध में आकर पृथु ने उसके पात्र में घोड़े की लीद डाल दी। साधु वह लेकर चला गया और कुटिया के बाहर रख दी।
कुछ समय बाद शिकार के लिए जाते हुए राजा ने साधु की कुटिया के बाहर लीद का बड़ा ढेर देखा। आश्चर्य से उन्होंने पूछा, “महाराज! यहाँ तो घोड़े भी नहीं हैं, इतनी सारी लीद कहाँ से आई?”
साधु ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी थी। समय आने पर वही इसे भोगेगा।”
राजा को अपनी गलती याद आ गई। वे क्षमायाचना करने लगे और बोले, “मैंने तो थोड़ी-सी लीद डाली थी पर यह इतनी अधिक कैसे हो गई?”

साधु ने कहा, “हम किसी को जो देते हैं, वह बढ़कर ही लौटता है।”
पृथु ने प्रायश्चित का उपाय पूछा। साधु बोले, “ऐसा कार्य करो, जो देखने में गलत लगे पर वास्तव में न हो। लोग जितनी निंदा करेंगे, पाप उतना ही हल्का होगा। अपराध उनके हिस्से में बँट जाएगा।”
अगले दिन राजा शराब की बोतल लेकर चौराहे पर बैठ गए। लोग देखकर आलोचना करने लगे, “कैसा राजा है! यह तो निंदनीय कार्य कर रहा है।”
पृथु पूरे दिन शराबी की तरह अभिनय करते रहे।
जब वे साधु के पास लौटे तो ढेर की जगह केवल एक मुट्ठी लीद बची थी। साधु ने कहा, “जिन लोगों ने आपकी नाहक निंदा की, आपका पाप उन सबमें बँट गया।”
सीख: यह कथा सिखाती है कि किसी की नाहक निंदा करने से हम उसके पाप में साझेदार हो जाते हैं। अंततः हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। जो कुछ हम देंगे, वही किसी न किसी रूप में लौटकर हमारे पास आता है।
