● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार एक गुरुदेव अपने शिष्य को अहंकार पर एक शिक्षाप्रद कथा सुना रहे थे।
एक विशाल, सदाबहार नदी के दोनों तटों पर दो सुन्दर नगर बसे हुए थे। उस पार एक भव्य और विशाल देवमंदिर था। नदी के इस ओर एक राजा रहता था। राजा को बड़ा अहंकार था; वह जो भी करता, उसमें अहंकार का प्रदर्शन अवश्य करता। वहीं एक दास भी था, बहुत ही विनम्र और सज्जन।
एक दिन राजा और दास दोनों नदी के किनारे पहुँचे। राजा ने उस पार बने देवमंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त की। वहाँ दो नावें खड़ी थीं। रात का समय था। राजा एक नाव में सवार हुआ और दास दूसरी नाव में। दोनों नावें एक-दूसरे से काफी दूर थीं।
राजा चप्पू चलाता रहा लेकिन नदी के उस पार न पहुँच पाया। जब सूर्योदय हुआ तो उसने देखा कि दास मंदिर से लौटकर इधर आ रहा है। दास आते ही देवमंदिर की प्रशंसा करने लगा। राजा ने आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम रातभर मंदिर में थे?”
दास ने कहा, “हाँ महाराज! वहाँ की देवप्रतिमा तो अत्यंत मनोहर है। लेकिन आप क्यों नहीं आए?”
राजा बोला, “मैं तो रातभर चप्पू चलाता रहा पर उस पार पहुँच ही नहीं पाया।”
गुरुदेव ने शिष्य से पूछा, “वत्स, बताओ, राजा ने पूरी रात चप्पू चलाया, फिर भी उस पार क्यों न पहुँच सका? जबकि वहाँ पहुँचने में एक घंटे से अधिक समय नहीं लगता था!”
शिष्य बोला, “हे नाथ! मैं तो आपका अबोध सेवक हूँ, मैं क्या जानूँ? कृपा कर आप ही बताइए।”
ऋषिवर ने समझाया, “वत्स, राजा ने चप्पू तो रातभर चलाया पर उसने नाव को बाँधने वाली रस्सी का खूंटा नहीं खोला था।”
गुरुदेव ने कहा, “हमें इससे सीख मिलती है कि लोग जीवनभर प्रयास करते रहते हैं परंतु जब तक अहंकार के खूंटे को नहीं उखाड़ेंगे, जब तक आसक्ति की रस्सी को नहीं काटेंगे, तब तक उनकी नाव परमात्मा के मंदिर तक नहीं पहुँच सकती।
हे वत्स! जब तक जीव ‘मैं’ को सामने रखेगा, तब तक उसका कल्याण संभव नहीं।
मत कहो, ‘यह मैंने किया।’
मत कहो, ‘यह मेरा है।’
बल्कि कहो, ‘जो कुछ भी है, वह सद्गुरु और समर्थ सत्ता का है। मेरा कुछ भी नहीं, सब उसी का है।’
