● सूर्यकांत उपाध्याय

एक गाँव में एक मूर्तिकार रहता था। वह बहुत सुंदर मूर्तियाँ बनाता और अपने काम से अच्छा धन अर्जित करता था। कुछ समय बाद उसका एक बेटा हुआ। बेटे ने बचपन से ही मूर्तियाँ बनानी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे उसमें निपुण हो गया। पिता उसकी कला देखकर खुश होता, लेकिन हर बार उसमें कोई न कोई कमी ज़रूर निकाल देता और कहता, “अगली बार इसे और बेहतर बनाने की कोशिश करना।”
बेटा शिकायत नहीं करता बल्कि पिता की सलाह मानकर अपनी मूर्तियों में सुधार करता रहता। लगातार अभ्यास और सुधार की वजह से उसकी मूर्तियाँ पिता से भी अधिक सुंदर और मूल्यवान बनने लगीं। लोग उन्हें ऊँची कीमत पर खरीदने लगे जबकि पिता की मूर्तियाँ पहले जैसी ही बिकती रहीं।
अब भी पिता उसकी मूर्तियों में कमियाँ निकालते लेकिन बेटे को यह अच्छा नहीं लगता था। एक दिन उसने झुंझलाकर कहा, “अगर आपकी सलाह इतनी अच्छी होती तो आपकी मूर्तियाँ कम दाम में क्यों बिकतीं? मेरी मूर्तियाँ तो उत्तम हैं।” यह सुनकर पिता ने कमियाँ निकालना बंद कर दिया।
शुरुआत में बेटा प्रसन्न हुआ पर कुछ महीनों बाद उसने महसूस किया कि लोग अब उसकी मूर्तियों की उतनी तारीफ नहीं करते और न ही उनके दाम बढ़ते हैं। उलझन में पड़कर वह पिता के पास पहुँचा। पिता ने शांत स्वर में कहा, “मुझे पहले से पता था कि ऐसा होगा क्योंकि मैं भी इसी अनुभव से गुजरा हूँ। जब तक मैं तुम्हारी मूर्तियों की कमियाँ बताता रहा, तुम संतुष्ट नहीं होते थे और लगातार बेहतर करने की कोशिश करते थे। वही प्रयास तुम्हारी सफलता का कारण बना। लेकिन जिस दिन तुमने मान लिया कि अब सुधार की गुंजाइश नहीं रही, उसी दिन तुम्हारा विकास रुक गया। लोग हमेशा अपेक्षा करते हैं कि कलाकार अपने पिछले काम से बेहतर रचना करे।”
बेटे ने पूछा, “तो अब मुझे क्या करना चाहिए?” पिता ने कहा, “अपने हुनर से कभी संतुष्ट मत होना। मान लो कि हमेशा सुधार की गुंजाइश है। यही सोच तुम्हें आगे बढ़ाती रहेगी।”
सीख: सच यह है कि पूर्णता पाना संभव नहीं, सुधार की संभावना हमेशा रहती है।
