● सूर्यकांत उपाध्याय

बरसाने में एक सेठ रहते थे। उनकी तीन-चार दुकानें थीं, जो अच्छी तरह चलती थीं। तीन बेटे और तीन बहुएँ थीं।सब आज्ञाकारी और संस्कारी। घर में सुख-सुविधा की कोई कमी नहीं थी, फिर भी सेठ के मन में एक अभाव था, उनके कोई बेटी नहीं थी।
संतों के दर्शन से उनका मन कुछ शांत हुआ। संत बोले, “मन में जो अभाव है, उस पर भगवान का भाव स्थापित कर लो…
सुनो सेठ! तुमको मिला है बरसाने का वास,
यदि मानो नाते, राधे सुता, काहे रहत उदास?”
सेठ जी ने राधा रानी का एक सुंदर चित्र मंगवाया और अपने कमरे में लगा लिया। वे उसे अपनी पुत्री मानकर दिन-रात राधे-राधे करते, सुबह उठकर भोग लगाते और रात को दुकान से लौटकर भी राधे-राधे कहकर सोते।
सेठ का भाव यह था
तीन बहुएँ, तीन बेटे-घर में सुख-सुविधा पूरी,
संपत्ति-भर भवन, रहती नहीं कोई मजबूरी।
कृष्ण कृपा से जीवन-पथ पर आती नहीं कोई बाधा,
मैं बहुत बड़भागी पिता हूँ, मेरी बेटी है राधा।।
एक दिन एक मनिहारीन (चूड़ी बेचने वाली) सेठ के घर के आँगन में आ पहुँची। उसने दरवाजे पर खड़े होकर आवाज दी, “चूड़ी पहन लीजिए माँ जी!”
तीनों बहुएँ बारी-बारी से आईं, चूड़ियाँ पहनीं और चली गईं। फिर एक हाथ और आगे बढ़ा। मनिहारीन ने सोचा, शायद कोई रिश्तेदार महिला होगी। उसने उसे भी चूड़ी पहना दी और चली गई।
दुकान पर पहुँचकर उसने सेठ जी से कहा, “सेठ जी, इस बार चूड़ियों के पैसे ज्यादा लगेंगे।”
सेठ जी ने पूछा, “क्यों, चूड़ियाँ महँगी हो गई हैं क्या?”
मनिहारीन बोली, “नहीं सेठ जी, आज मैंने चार जनों को चूड़ी पहनाई है।”
सेठ जी ने कहा, “तीन तो मेरी बहुएँ हैं, चौथी कौन? झूठ मत बोल। यह लो, तीन की कीमत ले लो बाकी का मैं घर जाकर पूछूँगा।”
मनिहारीन तीन का पैसा लेकर चली गई।
शाम को सेठ जी ने घर आकर पूछा, “चौथी कौन थी जिसने चूड़ी पहनी?”
तीनों बहुएँ बोलीं, “हम तीनों के अलावा तो कोई भी नहीं थी।”
रात को सेठ जी सोने से पहले अपनी ‘पुत्री राधा रानी’ का स्मरण करते हुए लेटे। नींद में राधा जी प्रकट हुईं।
सेठ जी बोले, “बेटी! बहुत उदास दिख रही हो, क्या बात है?”
तब बृषभानु-दुलारी बोलीं,
“तनया बनायो तात, नात ना निभायो,
चूड़ी पहनि लिनी, मैं जानि पितु गेह।
आप मनिहारीन को मोल न चुकायो,
तीन बहु याद किन्तु बेटी न याद रही।
कहत श्रीराधिका को नीर भरि आयो है,
कैसी भई दूरी, कहो कौन मजबूरी हाय!
आज चार चूड़ी काज मोहि बिसरायो है…”
सेठ जी की नींद टूट गई, पर आँसू नहीं थमे। वे रोते रहे।
सुबह स्नान-ध्यान करके मनिहारीन के घर पहुँचे। मनिहारीन ने उन्हें देखकर आश्चर्य से पूछा, “सेठ जी! इतनी सुबह, सब कुशल तो है?”
सेठ जी आँसुओं से भरी आँखों से बोले, “धन-धन भाग तेरो, मनिहारीन,
तोरे से बड़भागी नहीं कोई,
संत-महंत-पुजारी सब धन्य,
पर भाग तेरो, मनिहारीन!
मैंने मानी सुता, किन्तु निज नैनन निहारी नहीं,
चूड़ी पहिन गई तव कर ते श्री बृषभानु दुलारी।
धन-धन भाग तेरो, मनिहारीन,
बेटी की चूड़ी पहिराई- लेहु, जाहूँ तौ बलिहारी।
जन राजेश जोड़ि कर करियो, चूक हमारी।
जुगल नयन जलते भरि, मुख ते कहे न बोल,
मनिहारीन के पाँव पड़ि, लगे चुकावन मोल।”
मनिहारीन ने कहा
“जब तोहि मिलो अमोल धन,
अब काहे माँगत मोल?
ऐसन मेरो प्रेम से, श्रीराधे-राधे बोल…”
