● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बुजुर्ग महिला डॉक्टर के पास इलाज के लिए पहुँची। काउंटर पर बैठी रिसेप्शनिस्ट ने पाँच सौ रुपये फीस मांगी तो दादी कुछ पल उसके चेहरे को देखने लगीं। फिर झल्लाकर बोलीं, “किस बात के पाँच सौ रुपये दूँ? अभी डॉक्टर ने देखा भी नहीं, दवा भी नहीं दी!”
लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा, “दादी, यह डॉक्टर साहब की फीस है। जांच और दवा के पैसे तो बाद में देने पड़ेंगे।”
यह सुनकर दादी का चेहरा उतर गया। उन्होंने अपने पल्लू में बंधे डेढ़ सौ रुपये कसकर पकड़ लिए और बोलीं, “नहीं दिखाना मुझे तेरे डॉक्टर को। लूट मचा रखी है…” कहती हुई वह ग़ुस्से में बाहर जाने लगीं।
उसी समय डॉक्टर, जो क्लिनिक का मालिक भी था, स्क्रीन पर यह सब देख रहा था। सामान्यतः वह किसी को मुफ्त इलाज नहीं करता था पर उस दिन जाने क्यों उसके मन में दया उमड़ आई। उसने दादी को अंदर बुलवाया।
दादी बोलीं, “बेटा, मेरे पास डेढ़ सौ रुपये ही हैं।” डॉक्टर ने मुस्कराकर कहा, “कोई बात नहीं दादी, जितना है वही दे दीजिए।”
दादी बोलीं, “वो भी पूरा नहीं दूँगी, तीस रुपये तो किराए के लिए रखने होंगे।”
डॉक्टर हँस पड़ा, “ठीक है दादी, कुछ मत दीजिए, बस अपनी तकलीफ बताइए।”
जांच के बाद पता चला कि दादी को केवल बीपी की दिक्कत थी। डॉक्टर ने खुद अपनी दवाइयों से एक महीने की दवा दे दी और वादा किया कि आगे भी उन्हें मुफ्त दवा मिलेगी। बातचीत के दौरान दादी ने बताया कि वह अपनी विधवा बेटी के साथ रहती हैं और इस संसार में उनका कोई नहीं है।
डॉक्टर ने दादी का पूरा बिल माफ कर दिया। जाते-जाते दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “भगवान तुम्हें दुनिया की सारी खुशियाँ दे, बेटा।”
दादी के जाने के बाद डॉक्टर के मन में अजीब-सी शांति उतर आई। पिछले कई दिनों से वह अपनी पत्नी से झगड़ों में उलझा था, रिश्ता टूटने के कगार पर था। मगर उस दिन जैसे किसी ने मन की गाँठ खोल दी हो। रात को जब वह घर पहुँचा तो देखा पत्नी लौट आई थी। उसने भी मन से सारे रंज मिटा दिए।
उस रात डॉक्टर ने पहली बार महसूस किया कि असली सुकून पैसों से नहीं बल्कि किसी की मदद से मिलता है। अगले दिन उसने अपनी फीस पाँच सौ से घटाकर पचास रुपये कर दी और निर्धनों का मुफ्त इलाज करने का संकल्प लिया।
क्योंकि अब वह जान गया था, सबसे बड़ी दौलत मन की खुशी है, धन की नहीं। इसी में सुकून है।
