● सूर्यकांत उपाध्याय

बहुत समय पहले की बात है। एक घना और विशाल जंगल था, जिसमें तरह-तरह के पेड़-पौधे, बेल-बूटे और झाड़ियाँ फैली हुई थीं। चारों ओर शांति पसरी रहती थी। केवल पक्षियों की चहचहाहट और जानवरों की आवाजें ही वातावरण को जीवंत बनाती थीं। उसी जंगल के एक बड़े पेड़ की ऊँची डाल पर एक नन्ही गौरैया ने अपना घोंसला बनाया था। वह अपने अंडों की बड़ी स्नेहपूर्वक देखभाल करती और दिन भर खाने की तलाश में इधर-उधर उड़ती रहती।
एक दिन मौसम अचानक बदल गया। शीत ऋतु आ चुकी थी और रात होते ही ठंडी हवाएँ तेज हो गईं। जंगल के सभी प्राणी ठंड से काँपने लगे। उसी पेड़ के नीचे कुछ बंदरों का झुंड भी आकर बैठ गया। वे आपस में सटकर अपने शरीर की गर्मी से राहत पाने की कोशिश करने लगे। उनमें से एक बंदर ने दाँत किटकिटाते हुए कहा, “यदि हमें कहीं आग मिल जाए तो हम बच सकते हैं।” दूसरा बंदर बोला, “यहाँ तो ढेर सारी सूखी पत्तियाँ पड़ी हैं। क्यों न इन्हें इकट्ठा करके आग जलाने की कोशिश की जाए?”
सभी बंदरों ने दौड़-दौड़कर पत्तियाँ और लकड़ियाँ इकट्ठा कीं और ढेर बना लिया। अब वे सोचने लगे कि इसे कैसे जलाया जाए। तभी एक बंदर की नजर आसमान में उड़ते हुए जुगनू पर पड़ी। वह चिल्लाया, “देखो! यह तो हवा में उड़ती चिंगारी है। इसे पकड़कर नीचे डालते हैं, आग तुरंत जल जाएगी।” बाकियों ने उसकी बात पर विश्वास कर जुगनू को पकड़ लिया और ढेर के नीचे रख दिया।
पेड़ पर अपने घोंसले से यह सब देख रही गौरैया ने कहा, “भाइयों, यह जुगनू है, इससे आग नहीं जलेगी। असली चिंगारी चाहिए। आप पत्थरों या लकड़ियों को आपस में रगड़कर आग जला सकते हैं।”
लेकिन बंदरों ने उसकी बात नहीं मानी। उल्टा गुस्से में आकर गौरैया को पकड़ लिया और पेड़ के तने पर पटक दिया। नन्ही गौरैया वहीं प्राण त्याग बैठी।
सुबह होते ही बंदर ठंड से काँपते हुए निराश होकर वहाँ से चले गए।
सीख: इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि बिना माँगे किसी को सलाह देना व्यर्थ है। विशेषकर मूर्ख व्यक्तियों को समझाने की कोशिश करना नुकसानदेह हो सकता है।
