■ सूर्यकांत उपाध्याय

धर्मग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार एक बार अयोध्या के राजा अज दोपहर की वंदना में लीन थे। उसी समय लंकाधिपति रावण युद्ध हेतु वहाँ आया और दूर से उन्हें ध्यानमग्न देखता रहा। राजा अज ने भगवान शिव की आराधना कर जल का अर्घ्य आगे की ओर न अर्पित कर, पीछे फेंक दिया। यह देखकर रावण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह निकट आकर बोला, “राजन्, वंदना के बाद तो जल आगे अर्पित किया जाता है, आपने इसे पीछे क्यों फेंका?”
राजा अज ने शांत स्वर में उत्तर दिया,“जब मैं ध्यान में था, तब मेरी दृष्टि एक योजन दूर एक गाय पर पड़ी। उस पर एक सिंह आक्रमण करने ही वाला था। गाय की रक्षा हेतु मैंने जल पीछे अर्पित किया, और वह जल बाण बनकर सिंह को भेद गया।”
रावण को विश्वास न हुआ। वह एक योजन दूर पहुँचा तो देखा गाय सुरक्षित घास चर रही थी और शेर के शरीर में अनेक बाण धँसे थे। रावण ने मन ही मन कहा, “जिस पुरुष का जल ही बाण बन जाता है, उसे युद्ध में हराना असंभव है।” वह बिना युद्ध किए लंका लौट गया।
कुछ समय बाद राजा अज वनभ्रमण के लिए निकले। उन्होंने एक सुंदर सरोवर देखा, जिसमें एक अद्भुत कमल खिला था। उस कमल को पाने के लिए वे जल में उतरे, पर जितना आगे बढ़ते, कमल उतना ही दूर खिसक जाता। तभी आकाशवाणी हुई, “राजन्! तुम नि:संतान हो, इसलिए इस कमल के अधिकारी नहीं।” यह सुनकर उनका हृदय व्यथित हो उठा। भगवान शिव के परम भक्त होने पर भी संतान-सुख से वंचित रहना उन्हें दुःखी कर गया।
भगवान शिव ने उनकी व्यथा देख धर्मराज को आदेश दिया, “अयोध्या जाओ और किसी ब्राह्मण के माध्यम से राजा अज को संतान-प्राप्ति का योग दो।”
सरयू तट पर एक निर्धन ब्राह्मण दंपति रहते थे। वे राजा अज के दरबार में पहुँचे और अपनी दरिद्रता की कथा सुनाई। राजा ने उन्हें सोने के सिक्के देने की इच्छा जताई पर ब्राह्मण ने कहा, “यह प्रजा की संपत्ति है, आप अपना निजी दान दें।” तब राजा ने अपना हार उतारा, पर उसे भी ब्राह्मण ने अस्वीकार कर दिया।
रात में राजा मजदूर का वेश धरकर नगर में निकले और एक लोहार के यहाँ पूरी रात परिश्रम किया। सुबह उन्हें एक टका मजदूरी मिली। वे वह टका ब्राह्मण की पत्नी को देकर लौट आए। जब ब्राह्मण आया और उसने वह टका भूमि पर फेंका तो वहाँ एक गड्ढा बन गया।
जब गड्ढा खोदा गया तो उसमें से एक के बाद एक सोने के नौ रथ निकलकर आकाश में चले गए। दसवाँ रथ भूमि पर रुका, और उस पर एक तेजस्वी बालक था। ब्राह्मण उसे राजा अज के पास ले गया और कहा, “राजन्, यह बालक उसी टके से उत्पन्न हुआ है, जो आपने दान दिया था।”
राजा ने उसे पुत्र रूप में स्वीकार किया। वही बालक आगे चलकर महाराज दशरथ कहलाए, जो दसों दिशाओं में अपने रथ को संचालित करने की शक्ति रखते थे। इसी कारण वे “दशरथ” नाम से प्रसिद्ध हुए।
