● सूर्यकांत उपाध्याय

एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत भय था। एक दिन उसने उपाय सोचकर काल को अपना मित्र बना लिया। उसने कहा, “मित्र, तुम किसी को नहीं छोड़ते। एक दिन मुझे भी ले जाओगे!”
काल बोला,“यह मृत्यु लोक है। जो आया है उसे जाना ही होगा, यही सृष्टि का शाश्वत नियम है। परंतु तुम मेरे मित्र हो, इसलिए जितनी रियायत कर सकूँगा, करूँगा। अपनी इच्छा बताओ।”
व्यक्ति बोला,“मित्र, बस इतना करना कि मुझे ले जाने से पहले एक पत्र भेज देना ताकि मैं अपने परिवार को सब बातें समझा दूँ और भगवान-भजन में लग जाऊँ।”
काल मुस्कुराया, “मैं एक नहीं, चार पत्र भेजूँगा, ताकि तुम्हें चेतने का पर्याप्त समय मिले।”
यह सुनकर मनुष्य प्रसन्न हुआ और काल का भय मिट गया।
समय बीत गया। जब मृत्यु की घड़ी आई तो काल अपने दूतों सहित पहुँचा।
मनुष्य क्रोधित होकर बोला,“तुमने वचन दिया था कि पहले पत्र भेजोगे पर बिना सूचना आ गए!”
काल हँसा, “मैंने तुम्हें चारों पत्र भेजे, तुमने कोई उत्तर नहीं दिया।”
मनुष्य ने आश्चर्य से पूछा, “कौन से पत्र?”
काल बोला, “पहला पत्र तुम्हारे बालों पर भेजा, वे सफेद हो गए और मैंने कहा था ‘सावधान हो जाओ।’ पर तुमने उन्हें रंग लिया।
दूसरा पत्र आँखों को भेजा, ज्योति मंद हुई पर तुमने चश्मा लगाकर संसार देखने का प्रयत्न किया।
तीसरा पत्र दाँतों को भेजा, वे गिर गए, फिर भी नकली दाँत लगाकर स्वाद में लिप्त रहे।
चौथा पत्र शरीर पर भेजा, रोग और पीड़ा दी पर तुमने सब अनसुना कर दिया।”
यह सुनकर मनुष्य रोने लगा, “मैंने तेरे संकेत नहीं समझे। सोचता रहा कि कल से भजन करूँगा पर वह कल कभी नहीं आया।”
काल ने कहा,“तुमने सारा जीवन भोग-विलास में बिताया, ईश्वर के नियमों की अवहेलना की। धन-संपत्ति से मुझे नहीं लुभा सकते। यदि शुभ कर्मों और सच्चाई का धन कमाया होता तो मैं विवश हो जाता पर तुम्हारे पास वह धन नहीं है।”
अंत में काल ने उसके प्राण ले लिए।
● शिक्षा: संदेश स्पष्ट था, मृत्यु ही एकमात्र ध्रुव सत्य है। दौलत, शोहरत, संतान; सब अनिश्चित हैं पर मृत्यु निश्चित है। इसलिए जीवन रहते ईश्वर-स्मरण और सत्कर्म ही सच्ची तैयारी है।
