■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन भ्रमण के लिए कहीं निकले थे। मार्ग में उन्होंने एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा माँगते देखा। अर्जुन को उस पर दया आ गई और उन्होंने उस ब्राह्मण को स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक पोटली दे दी। उसे पाकर ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुंदर स्वप्न देखता हुआ घर की ओर लौट चला। किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था। राह में एक लुटेरे ने उससे वह पोटली छीन ली। बेचारा ब्राह्मण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।
अगले दिन जब अर्जुन की दृष्टि पुनः उस ब्राह्मण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा। ब्राह्मण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया। उसकी व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गई। उन्होंने विचार किया और इस बार ब्राह्मण को एक मूल्यवान माणिक दे दिया। ब्राह्मण उसे लेकर घर पहुँचा। उसके घर में एक पुराना घड़ा था, जो बहुत समय से प्रयोग में नहीं लाया गया था।
ब्राह्मण ने चोरी के भय से माणिक उस घड़े में छिपा दिया। किंतु दिनभर की थकान के कारण उसे नींद आ गई। इस बीच उसकी स्त्री नदी में जल लेने चली गई। मार्ग में उसका घड़ा टूट गया तो उसने सोचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है, वही ले आती हूँ। ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले जाकर नदी में डुबो दिया। परंतु उसी के साथ माणिक भी जल की धारा में बह गया। जब ब्राह्मण को यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह पुनः भिक्षावृत्ति में लग गया।
जब अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उसे फिर उसी दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर कारण पूछा। सारा वृत्तांत सुनकर अर्जुन बहुत हताश हुए और मन ही मन सोचने लगे, “इस अभागे ब्राह्मण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।”
तब भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ विचार कर ब्राह्मण को मात्र दो पैसे दान में दिए। यह देखकर अर्जुन ने पूछा, “प्रभु! मेरी दी हुई स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसों से क्या होगा?”
यह सुनकर प्रभु केवल मुस्कुरा दिए और अर्जुन से कहा, “उस ब्राह्मण के पीछे चलो।”
रास्ते में ब्राह्मण सोचता हुआ जा रहा था, “दो पैसों से तो एक व्यक्ति का भोजन भी नहीं आ सकता, फिर भी प्रभु ने मुझे इतना तुच्छ दान क्यों दिया? यह कैसी लीला है?”
वह विचार करता हुआ आगे बढ़ रहा था कि उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी। मछुवारे के जाल में एक मछली फँसी थी और छूटने के लिए तड़प रही थी।
ब्राह्मण को उस मछली पर दया आ गई। उसने सोचा, “इन दो पैसों से पेट की आग तो बुझेगी नहीं तो क्यों न किसी जीव के प्राण ही बचा लिए जाएँ?”
यह सोचकर उसने दो पैसों में उस मछली का सौदा कर लिया और उसे अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरकर वह मछली को नदी में छोड़ने चला गया। तभी मछली के मुख से कुछ निकला, देखा तो वही माणिक था, जो उसने पुराने घड़े में छिपाया था!
ब्राह्मण प्रसन्नता से चिल्लाने लगा, “मिल गया! मिल गया!”
उसी समय संयोगवश वही लुटेरा वहाँ से गुजर रहा था, जिसने पहले उसकी मुद्राएँ लूटी थीं। उसने ब्राह्मण को चिल्लाते सुना, तो भयभीत हो गया। उसे लगा कि ब्राह्मण उसे पहचान गया है और अब राजा के दरबार में शिकायत करेगा। डर के मारे वह ब्राह्मण से क्षमा माँगने लगा और लूटी हुई सारी मुद्राएँ भी लौटा दीं।
यह देखकर अर्जुन प्रभु श्रीकृष्ण के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने कहा “प्रभु! यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सके, वह आपके दो पैसों ने कर दिखाया!”
भगवान श्रीकृष्ण बोले,“हे अर्जुन! यह सोच का अंतर है। जब तुमने उस निर्धन को स्वर्ण मुद्राएँ और माणिक दिया, तब उसने स्वार्थवश केवल अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैंने उसे दो पैसे दिए, तब उसने दूसरे के दुःख को भी अनुभव किया।”
● शिक्षा : सत्य तो यह है कि जब आप दूसरों के दुःख के विषय में सोचते हैं और किसी जीव का भला करते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं। और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं, क्योंकि परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
