■ सूर्यकांत उपाध्याय

दो मित्र थे, एक सज्जन पुरुष, दूसरा जरा दुर्जन किस्म का। सज्जन मित्र संत हो गए और प्रखर वक्ता के रूप में सम्मानित होने लगे। दूसरा मित्र इधर-उधर चोरी-चकारी और हाथ की सफाई कर अपना जीवन यापन करने लगा।
एक दिन संत अपने गृह नगर आए। प्रवचन के लिए विशाल पंडाल सजा। वह बदमाश मित्र भी प्रवचन सुनने पहुंच गया। संत ने उसे देखते ही पहचान लिया। प्रवचन प्रारंभ हुआ। लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे, तालियां गूंज उठीं। अंत में संत ने कहा, “यह शहर मेरी जन्मभूमि है। मैं चाहता हूं कि यहां दस लाख की लागत से एक अस्पताल बने और यह राशि इसी पंडाल से एकत्र करनी है।”
उन्होंने कहा, “एक टोकनी आपके पास आएगी, जिसकी जितनी श्रद्धा हो, राशि डालते जाएं।” संत के चालाक मित्र ने भी दान की भावना से दस हजार रुपए निकाल कर हाथ में रख लिए। लोग मुक्तहस्त से दान देने लगे। दो लाख, पांच लाख, दस लाख… राशि इकट्ठा होती गई, टोकनी अभी घूम ही रही थी।
संत के मित्र ने सोचा, जब इतने पैसे इकट्ठे हो ही गए हैं तो मेरी छोटी-सी राशि का क्या महत्व? उसने चुपचाप दस हजार की जगह हाथ में पांच हजार रख लिए। जब टोकनी में पंद्रह लाख हो गए, तो उसने पांच हजार की जगह केवल एक हजार कर लिए। तभी अचानक बिजली गुल हो गई। तब तक बीस लाख रुपए एकत्र हो चुके थे।
जब टोकनी संत के मित्र के पास पहुंची, उसने सोचा, जब दान राशि लक्ष्य से दोगुनी हो गई है तो अब एक हजार भी डालकर क्या करना! उसने पैसे तुरंत जेब में रख लिए। सभा समाप्त हुई। वह मित्र भी संत के साथ उठकर चलने लगा।
मित्र ने संत की खूब प्रशंसा की, “वाह, क्या प्रभाव है आपका! आपने दस लाख कहा था, बीस लाख इकट्ठा हो गए। गजब बोलते हैं आप!”
संत कुछ देर तक सुनते रहे, फिर विनम्रता से बोले, “पूछना तो नहीं चाहिए, पर बिना पूछे रहा नहीं जा रहा… तुमने कितने रुपए दिए?”
मित्र ने कहा, “सच बताऊं मित्र, मैने कुछ भी नहीं दिया।”
संत मुस्कराए, “फिर कैसा प्रभाव? जब मैं अपने मित्र को ही प्रेरित नहीं कर पाया!”
मित्र बोला, “ऐसा नहीं है। जब लाइट बंद हुई थी तब मन हुआ था कि टोकनी में से एक-दो गड्डी गायब कर दूं। यह तो आपके प्रवचन का ही प्रभाव है कि मैने ऐसा कुछ नहीं किया।”
