
■ सूर्यकांत उपाध्याय
एक सेठ बस से उतरे। उनके पास कुछ सामान था। आस-पास नजर दौड़ाई तो उन्हें एक मजदूर दिखाई दिया।
सेठ ने आवाज देकर उसे बुलाया और पूछा, “अमुक स्थान तक यह सामान ले जाने के कितने पैसे लोगे?”
मजदूर बोला, “आपकी मर्जी, जो देना हो दे देना। लेकिन मेरी एक शर्त है, जब मैं सामान लेकर चलूँ तो रास्ते में या तो आप मेरी सुनना या फिर मैं आपकी सुनूँ।”
सेठ ने डांटकर उसे भगा दिया और किसी दूसरे मजदूर की तलाश करने लगे, परंतु आज भी वही हुआ जो राम वनगमन के समय गंगा किनारे हुआ था, नाव केवल केवट की ही थी।
मजबूरी में सेठ ने उसी मजदूर को बुलाया। मजदूर दौड़कर आया और बोला, “मेरी शर्त आपको मंजूर है?”
सेठ ने स्वार्थवश हाँ कर दी।
मजदूर ने सामान उठाया और सेठ के साथ चल दिया। उसने पूछा, “सेठजी, आप कुछ सुनाएँगे या मैं सुनाऊँ?”
सेठ ने कहा, “तू ही सुना।”
मजदूर खुश होकर बोला, “जो कुछ कहूँ, उसे ध्यान से सुनना।” इतना कहकर वह पूरे रास्ते बोलता रहा और दोनों मकान तक पहुँच गए।
मजदूर ने बरामदे में सामान रख दिया। सेठ ने पैसे दिए, मजदूर ने ले लिए और पूछा, “सेठजी! मेरी बातें आपने ध्यान से सुनीं या नहीं?”
सेठ बोला, “मैंने तेरी कोई बात नहीं सुनी। मुझे तो बस अपना काम निकालना था।”
मजदूर बोला, “सेठजी, आपने जीवन की बहुत बड़ी गलती कर दी। कल ठीक सात बजे आपकी मृत्यु होने वाली है।”
सेठ को गुस्सा आया, “बहुत बकवास सुन ली। अब जा, नहीं तो पिटाई कर दूँ।”
मजदूर शांत भाव से बोला, “मारो या छोड़ दो, लेकिन कल शाम आपकी मौत निश्चित है। फिर भी मेरी बात ध्यान से सुन लो।”
सेठ थोड़ा गंभीर हुआ, “सभी को मरना है। अगर मेरी मौत कल होनी है तो होगी। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?”
मजदूर बोला, “तभी तो कह रहा हूँ कि मेरी बात ध्यान से सुन लो।”
सेठ बोला, “ठीक है।”
मजदूर बोला,”मरने के बाद जब आप ऊपर जाएँगे, तो आपसे पूछा जाएगा— ‘हे मनुष्य! पहले पाप का फल भोगेगा या पुण्य का?’
आप कहना, ‘मैं पाप का फल पहले भोगने को तैयार हूँ, लेकिन पुण्य का फल अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ।’ “
इतना कहकर मजदूर चला गया।
दूसरे दिन शाम ठीक सात बजे सेठ की मृत्यु हो गई।
सेठ ऊपर पहुँचा तो यमराज ने वही प्रश्न कर दिया। सेठ ने वही उत्तर दिया, “पाप का फल भुगतने को तैयार हूँ, परंतु पुण्य का फल आँखों से देखना चाहता हूँ।”
यमराज बोले, “हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। यहाँ दोनों फलों का भोग करवाया जाता है।”
सेठ बोला, “फिर पूछा क्यों? और पूछा है तो पूरा करो। धरती पर तो अन्याय देखा है पर क्या यहाँ भी अन्याय होगा?”
यमराज असमंजस में पड़ गए। बोले, “इसके लिए कोई व्यवस्था नहीं है।” विवश होकर वे सेठ को ब्रह्मा जी के पास ले गए।
ब्रह्मा जी ने अपनी पोथी पलटी परंतु ऐसी कोई धारा या उपधारा नहीं मिली जिससे सेठ की इच्छा पूरी हो सके।
फिर वे दोनों सेठ को लेकर भगवान के पास पहुँचे।
भगवान ने कहा, “तुम दोनों अपना अपना काम करो।” दोनों चले गए।
भगवान ने सेठ से पूछा, “हाँ, अब बोलो। क्या चाहते हो?”
सेठ बोला, “मैं तो वही बात कह रहा हूँ— पाप का फल भुगतने को तैयार हूँ, परंतु पुण्य का फल अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ।”
भगवान मुस्कराए, “धन्य है वह सद्गुरु, वह मजदूर, जिसने तुम्हारे अंतिम समय में भी तुम्हारा कल्याण कर दिया।
अरे मूर्ख! उसके बताए उपाय के कारण तू मेरे सामने खड़ा है। मेरे दर्शन से तेरे सारे पाप भस्म हो गए। इससे बड़ा पुण्य-फल और क्या देखना चाहता है?”
इसीलिए बचपन से सिखाया जाता है कि संतजनों की बात ध्यान से सुननी चाहिए। पता नहीं कौन-सी बात जीवन में काम आ जाए।
