■ सूर्यकांत उपाध्याय

किसी आश्रम में एक साधु रहता था। कई वर्षों से वह वहीं था। अब वह काफी वृद्ध हो चला था और मृत्यु को निकट महसूस कर रहा था। फिर भी संतुष्ट था कि तीस साल से प्रभु का सिमरन किया है। उसे विश्वास था कि उसके खाते में ढेर सारा पुण्य जमा है, इसलिए मोक्ष मिलना तो तय ही है।
एक दिन उसके मन में एक स्त्री का ख्याल आया। उस स्त्री ने कहा, “अपने एक दिन का पुण्य मुझे दे दो और मेरे एक दिन का पाप तुम वरण कर लो।”
इतना कहकर वह लोप हो गई। साधु बेचैन हो गया, इतने बरस कभी स्त्री का ख्याल नहीं आया, अब अंत निकट है तो यह ख्याल क्यों आने लगा!
उसने मन से विचार हटाया और पुनः प्रभु सुमिरन में बैठ गया। पर स्त्री फिर ख्याल में आई और वही बात दोहराई।
इस बार साधु ने उसे पहचानने की कोशिश की, पर चेहरा धुंधला था। वह सोच में पड़ गया कि एक दिन का पुण्य लेकर यह स्त्री क्या करेगी? शायद किसी कष्ट में हो! पर गुरु जी ने हमेशा कहा था कि पुण्य आपकी असली पूंजी है, इसे कभी किसी को मत देना। उसे डर लगा कि कहीं यह मोक्ष से भटकाने की कोई चाल न हो।
साधु ने अपनी चिंता गुरु जी को बताई। गुरु ने डांटा, “मेरी शिक्षा का कोई असर नहीं! पुण्य किसी को नहीं देने होते।”
साधु ने “सत्य वचन” कहकर फिर सुमिरन शुरू किया। पर स्त्री फिर प्रकट हुई, “तुम्हारा गुरु अपूर्ण है। तुम्हें लगता है तुमने आसक्ति छोड़ दी, पर तुम्हारे भीतर तो और अधिक आसक्ति है। किसी जरूरतमंद की सहायता का भाव भी तुममें नहीं रहा।”
साधु और परेशान हुआ। वह फिर गुरु के पास गया। गुरु ने और डांटा, “गुरु पर संदेह करवा कर वह तुम्हें पाप में धकेल रही है। जरूर कोई बुरी आत्मा है!”
अब साधु असमंजस में था। लौटकर फिर सुमिरन में बैठ गया। स्त्री फिर आई, “इतने साल धर्म में रहकर तुम गुरु के भी गुलाम बन गए। तुम्हारा स्वतंत्र मत तक नहीं है। मैं फिर कहती हूँ, मुझे एक दिन का पुण्य दे दो, मेरा एक दिन का पाप ले लो। किसी को मोक्ष दिलाना है, यही प्रभु की इच्छा है।”
साधु को अपनी अल्पज्ञता पर ग्लानि हुई।
संत कहते हैं-पुण्य मत दो। धर्म कहता है जरूरतमंद की मदद करो… यहाँ तो मैं फंस गया।
जब मार्ग न दिखा तो उसने प्रभु से ही समाधान पूछा।
आकाशवाणी हुई, “पहले तुम बताओ, तुम किस पुण्य पर इतराते हो?”
साधु बोला, “मैंने तीस साल सुमिरन किया। भिक्षा पर रहा। संचय नहीं किया। सब त्याग दिया।”
वाणी ने कहा, “तीस वर्ष तुमने कोई उपयोगी कार्य नहीं किया। दूसरों की कमाई पर जिए। तुम्हारे खाते में शून्य पुण्य है।”
साधु स्तब्ध रह गया।
उसने पूछा, “तो फिर वह स्त्री मेरे पुण्य क्यों मांग रही है?”
प्रभु बोले, “क्या तुम जानते हो वह स्त्री कौन है?”
साधु, “नहीं प्रभु, पर जानना चाहता हूँ।”
प्रभु ने कहा,”वह तुम्हारी पत्नी है, जिसे तुम ‘पाप का संसार’ कहकर छोड़ आए थे।”
साधु की आंखें फटी रह गईं।
प्रभु आगे बोले, “जब तुम घर छोड़ गए थे, वह कई दिन रोती रही। फिर संचय खत्म हुआ, बच्चों की भूख ने उसे विवश किया। नौकरी के लिए भटकी पर पढ़ी-लिखी न होने से काम नहीं मिला। अंत में उसे कुष्ठ आश्रम में काम मिला।
वह रोज बीमारी से बचते हुए उन लोगों की सेवा करती रही जिन्हें सब छोड़ जाते हैं।
वह आज भी खुद को पापिन कहती है कि शायद उसके पापों से उसका पति उसे छोड़ गया।”
प्रभु बोले, “उसे आभास है कि उसका पति मरने वाला है। वह चाहती है कि तुम्हें मोक्ष मिले। उसने बार-बार हमसे प्रार्थना की, ‘मेरी जिंदगी काम आ जाए प्रभु पर मेरे पति को मोक्ष जरूर देना।’
मैंने उससे कहा, ‘तुम अपने पुण्य दे दो।’
वह बोली, ‘मेरे पास तो है ही नहीं।’
फिर मैंने कहा, ‘एक साधु है, उससे एक दिन का पुण्य मांग लो।’
प्रभु ने कहा, “वह अपने पुण्य तुम्हें दे रही थी पर तुम अपने ही हिसाब-किताब में उलझ गए। तुम साधु भी नहीं बन पाए, न घर चलाया, न संसार समझा। पर पत्नी आज भी तुम्हारे लिए बेचैन है।
उसे कुष्ठ रोग है, वह मृत्युशैया पर है… और तुम्हारे मोक्ष की चिंता कर रही है।
तुम तीस वर्ष से सिर्फ अपने मोक्ष का लेखा-जोखा करते रहे।”
साधु के शरीर से पसीना बहने लगा। सांस तेज हो गई।
उसने जोर से पुकारा, “यशोदा!”
वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। सुबह होने को थी। उसने झोला बांधा और गुरु जी के सामने जा खड़ा हुआ।
गुरु ने कहा, “आज इतनी जल्दी भिक्षा पर?”
साधु बोला, “घर जा रहा हूँ।”
गुरु ने पूछा, “अब घर क्या करने जा रहे हो?”
साधु बोला, “धर्म सीखने।”
