■ सूर्यकांत उपाध्याय

आज की कहानी पुणे के निवासी राम भाऊ की है। अंगूठा छाप राम भाऊ पढ़े लिखे तो नहीं थे पर हुनरमंद जरूर थे।
वे पेशे से माली हैं और बंजर धरती को हरीभरी बनाने की कला में माहिर हैं।
राम भाऊ घर घर जाकर लोगों के बगीचे संभालते थे। गुजारा लायक पैसा बच जाता था।
एक दिन पुणे निवासी निनाद वेंगुलेकर की नजर राम भाऊ पर पड़ी। निनाद ने उनसे कहा कि उनके घर में एक बगीचा है जिसकी देखरेख के लिये उन्हें एक माली की जरूरत है।
राम भाऊ तैयार हो गये। जब निनाद ने पूछा कि इसके कितने पैसे लेंगे तो राम भाऊ बोले, “जो भी आप सहर्ष देंगे, वही स्वीकार कर लूंगा।”
असल में राम भाऊ के मन में एक अलग योजना थी। निनाद का घर पुणे के पॉश इलाकों में था, जहां अधिकतर धनाढ्य लोगों की कोठियां थी।
अगली सुबह राम भाऊ साइकिल से पहुंच गये। निनाद से कहा, “राम राम सेठ।”
औजार निकाले और काम में लग गये। केवल 15 दिन में उन्होंने बगीचे का रूप ही बदल दिया।
बगिया को ऐसा संवारा कि स्वयं निनाद भी देखकर हैरान रह गये।
उसके बाद अपने प्लान के अनुसार राम भाऊ ने आसपास के लोगों से संपर्क करना शुरू किया। उन्होंने लोगों को निनाद के बगीचे में हुआ रूपांतरण दिखाया।
आसपास के लोगों को भी राम भाऊ का काम भा गया और एक एक कर उन्होंने पूरे पड़ोस के बगीचों का काम अपने हाथ में ले लिया।
सुबह 6 बजे से सांझ 6 बजे तक राम भाऊ जीतोड़ मेहनत करते और हर बगीचे में नया जीवन फूंकते।
काम बढ़ा, आमदनी बढ़ी और राम भाऊ ने साइकिल से आगे बढ़कर मोटरसाइकिल खरीदी।
दो साल में वे 20 घरों के बगीचों की जिम्मेदारी संभालने लगे और चार लड़कों को रोजगार दे दिया।
इसी दौरान पुणे के एक मशहूर बिल्डर की नजर उनके काम पर पड़ी और उसने राम भाऊ को एक बड़े बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स में पेड़ पौधे लगाने का ठेका दे दिया।
राम भाऊ ने दिन रात एक कर दिये।
यह कॉन्ट्रैक्ट उनकी जिंदगी की दिशा ही बदल गया। काम 10 गुना और आमदनी कई गुना बढ़ गयी।
दो साल बाद एक दिन निनाद ने राम भाऊ को फोन किया कि वे दोबारा अपने बगीचे में कुछ काम करवाना चाहते हैं।
राम भाऊ ने कहा, “कुछ देर में पहुंच जाता हूँ, सेठ।”
कुछ ही देर बाद निनाद के बंगले के सामने एक चमचमाती होंडा सिविक आकर रुकी। निनाद बाहर ही खड़े थे।
गाड़ी से एक शख्स उतरा और बोला,“राम राम सेठ।” निनाद चकित। यह कौन है जो इतनी बड़ी गाड़ी से उतर कर उन्हें ‘सेठ’ कह रहा है?
वह मुस्कुराया और बोला, “पहचाना सेठ? मैं राम भाऊ।”
क्या वही राम भाऊ जो दो वर्ष पहले साइकिल से आते थे, आज होंडा सिविक में खड़े थे!
हैरान निनाद को राम भाऊ ने हाथ जोड़कर कहा,“शुरुआत तो आपके घर से ही की थी, सेठ।”
निनाद को लगा कि इतनी आलीशान गाड़ी से उतरा व्यक्ति अब बगीचे की मिट्टी थामेगा नहीं। लेकिन जो हुआ, वह इससे भी अप्रत्याशित था, राम भाऊ ने औजार निकाले और काम पर जुट गये।
सहायक भी थे पर सबसे अधिक मेहनत अब भी वही कर रहे थे।
निनाद के लिये यह दृश्य अविश्वसनीय था। एक साधारण माली जिसने साइकिल से सिविक तक का सफर तय किया पर उसके भीतर आज भी वही निष्ठा, वही विनम्रता और वही समर्पण था।
साइकिल से सिविक तक के सफर में राम भाऊ का एक ही हमसफर रहा, उनका पुरुषार्थ। उनकी मेहनत।
हम सबके भीतर कुछ बड़ा करने की इच्छा होती है, पर हममें से कई लोग “शून्य” से शुरुआत करने से डरते हैं।
राम भाऊ की कहानी बताती है कि पुरुषार्थ और कर्मठता के सहारे इंसान साइकिल से होंडा सिविक तक का सफर तय कर सकता है।
100 तक पहुंचने का सफर 0 से ही शुरू होता है।
