■ सूर्यकांत उपाध्याय

“मैं अपने जीवन में कभी विकास कर पाऊंगी या नहीं? क्या सारा जीवन यूँ ही रोते-रोते बीत जाएगा?” ऐसी नकारात्मक भावनाएँ प्रज्ञा के मन में अपने आप उमड़ने लगीं।
उलझन में पड़ी प्रज्ञा मार्गदर्शन के लिए अपनी सहेली मनीषा के पास पहुँची। उसने कहा, “मनीषा, क्या मैं कभी आगे बढ़ पाऊंगी? क्या मेरे जीवन में विकास के द्वार खुलेंगे? या मैं यूँ ही अपना जीवन बर्बाद कर दूंगी?”
मनीषा ने उसे समझाया,“प्रज्ञा, तुम अपने मन में ऐसी भावनाएँ क्यों ला रही हो? अभी तो तुम्हारा बचपन ही बीता है। युवा अवस्था कर्म का समय तो अब सामने आने वाला है। धैर्य रखो, विकास अपने आप होगा।”
प्रज्ञा बोली,“जब बचपन में ही विकास नहीं हुआ तो आगे क्या होगा? लगता है मेरे जीवन में विकास नहीं, केवल विनाश आने वाला है।” उसके स्वर की हताशा मनीषा को व्यथित कर गई।
मनीषा ने कहा,“चलो, मेरे पिताजी के बगीचे में चलते हैं। वहाँ एक पेड़ के नीचे महात्मा परमानंद जी वर्षों से साधना कर रहे हैं। उनसे मिलकर अवश्य समाधान मिलेगा।”
दोनों सहेलियाँ बगीचे में पहुँचीं।
प्रज्ञा ने विनम्रता से कहा,“गुरुदेव, आप परमानंद की अनुभूति करते हैं। कृपया हमें भी कुछ आनंद और मार्गदर्शन दें।”
मनीषा ने आगे कहा,“गुरुदेव, यह मेरी सहेली है। इसके मन में उथल-पुथल है। इसे लगता है कि यह जीवन में कभी विकास ही नहीं कर पाएगी। आप इसे राह दिखाएँ।”
महात्मा परमानंद मुस्कुराए,“बेटी, क्या तुम मेरा एक काम करोगी? तभी मैं तुम्हारी सहायता कर पाऊँगा।”
“कहिए गुरुदेव, आपका आदेश कभी नहीं टालूँगी,” प्रज्ञा ने तुरंत कहा।
गुरु ने दो छोटे पौधे उसके हाथ में रखते हुए कहा,“इन दोनों को यहाँ लगाओ। प्रतिदिन सुबह-शाम पानी देना। एक भी दिन चूकना नहीं।”
दोनों ने आदेश स्वीकार किया। पौधे लगाए, खाद डाली और पानी दिया।
और प्रतिदिन दो बार वहाँ आने लगीं।
एक वर्ष बीत गया। पेड़ केवल तीन फीट बढ़े। अगले वर्ष चार फीट। पाँच वर्षों में कठिनाई से पाँच फीट।
प्रज्ञा ने थककर कहा,“मनीषा, कब तक पानी दें? पेड़ तो बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहा।”
वे दोनों गुरु के पास पहुँचीं। “गुरुदेव, कब तक पानी देते रहें? पेड़ तो बढ़ता ही नहीं!”
गुरु मुस्कुराए,“बेटी, धैर्य रखो। आज रात तुम दोनों यहीं बगीचे में विश्राम करो।”
दोनों तैयार हो गईं। भोजन कर, बिस्तर लेकर बगीचे पहुँचीं। पेड़ों को पानी दिया और रात वहीं सो गईं।
प्रातःकाल गुरु उन्हें पेड़ों के पास ले गए।
दोनों स्तब्ध रह गईं। पेड़ आकाश छूते दिखाई दे रहे थे!
“गुरुदेव, यह कैसे हुआ? ये इतने लंबे कैसे हो गए?”
गुरु बोले, “ये बांस के पेड़ हैं। ये पहले पाँच वर्षों तक केवल अपनी जड़ें मजबूत करते हैं। जब जड़ें मजबूत हो जाती हैं, तब एक ही वर्ष में तीस फीट तक बढ़ जाते हैं।
जीवन भी ऐसा ही है, बेटी। पहले अपनी जड़ें मजबूत करो। धैर्य, मनोबल, स्थिरता और निरंतर प्रयास। जड़ें दृढ़ होंगी तो विकास अपने आप, तेजी से होगा।”
गुरु का ज्ञान प्रज्ञा के लिए जीवन-परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ।
आशीर्वाद लेकर दोनों घर की ओर लौटीं।
रास्ते में दोनों के मुख से एक ही शब्द निकला, जड़ें मजबूत करो।
