■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक नगर का सेठ अपार धन-संपदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी संपत्ति का मूल्य निर्धारण करवाने की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया, “मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर उसका ब्यौरा दीजिए, ताकि पता चले मेरे पास कुल कितनी संपदा है।”
सप्ताह भर बाद लेखा अधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा, “कुल कितनी संपदा है?”
लेखा अधिकारी ने कहा, “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ियाँ बिना कुछ किए आराम से आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकती हैं, इतनी सम्पदा आपके पास है।”
लेखा अधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, “तो क्या मेरी आठवीं पीढ़ी भूखों मर जाएगी?”
वे दिन-रात इसी चिंता में रहने लगे। तनावग्रस्त रहने लगे, भूख समाप्त हो गई और कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी बार-बार तनाव का कारण पूछती रहीं पर वे कुछ नहीं बताते। सेठानी से उनकी हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन की स्थिरता और शांति के लिए साधु-संतों के सत्संग में जाने की सलाह दी। सेठ को भी यह विचार पसंद आया,“चलो, अच्छा है। संत अवश्य कोई ऐसी विद्या जानते होंगे जिससे मेरा दुःख दूर हो जाए।”
सेठ संत-समागम में पहुँचे और एकांत में संत से मिलकर अपनी समस्या बताई। सेठ ने कहा, “महाराज, मेरे दुःख का तो कोई पार नहीं है। मेरी आठवीं पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र सात पीढ़ियों के लिए ही पर्याप्त सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताइए, जिससे मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरें। आप जो भी बताएँ, मैं अनुष्ठान, विधि आदि सब करने को तैयार हूँ।”
संत ने समस्या समझी और बोले,“इसका समाधान बहुत सरल है। ध्यान से सुनो, सेठ। बस्ती के अंतिम छोर पर एक बूढ़ी माँ रहती है, एकदम कंगाल और विपन्न। न उसका कोई कमाने वाला है और न वह स्वयं कुछ कमा पाने में सक्षम है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। यदि वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित होगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी।”
सेठ को उपाय अत्यंत सरल लगा। उसे धैर्य कहाँ था! वह घर पहुँचते ही सेवक के साथ क्विंटल भर आटा लेकर उस बूढ़ी माँ की झोपड़ी पर पहुँच गया।
सेठ ने कहा,“माताजी, मैं आपके लिए आटा लाया हूँ, कृपया इसे स्वीकार कीजिए।”
बूढ़ी माँ ने कहा, “बेटा, आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए।”
सेठ ने कहा, “फिर भी रख लीजिए।”
बूढ़ी माँ बोली, “रखकर क्या करूँ? मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।”
सेठ ने कहा, “अच्छा, क्विंटल नहीं तो कम से कम आधा किलो ही रख लीजिए।”
बूढ़ी माँ ने शांत स्वर में कहा, “बेटा, आज के भोजन के लिए आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है। मुझे अतिरिक्त की आवश्यकता नहीं है।”
सेठ ने कहा, “तो इसे कल के लिए रख लीजिए।”
बूढ़ी माँ मुस्कराई और बोली, “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ? जैसे अब तक प्रबंध होता आया है, कल का प्रबंध कल हो जाएगा।”
बूढ़ी माँ ने आटा लेने से साफ इंकार कर दिया।
सेठ की आँखें खुल चुकी थीं। एक गरीब बूढ़ी माँ कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही है और मैं, अपार धन-संपदा होते हुए भी, आठवीं पीढ़ी की चिंता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं, तृष्णा है।
वाकई, तृष्णा का कोई अंत नहीं होता। संग्रहखोरी एक दूषण है। संतोष में ही शांति और सुख निहित है।
