● सूर्यकांत उपाध्याय

रात का समय था। बारिश और ठंडी हवा के बीच एक बूढ़ा आदमी अस्पताल के बाहर बैठा था। आंखें दरवाज़े पर टिकी थीं उसी बेटे के इंतज़ार में, जिसे उसने कभी गोद में झुलाया था।
आशीष का एक्सीडेंट हुआ था। ऑपरेशन ज़रूरी था, खून की सख्त ज़रूरत थी। डॉक्टरों के आगे हाथ फैलाने के सिवा रामनाथ के पास कोई चारा नहीं था। खुद की बीमारी भूला लेकिन बेटे के लिए दौड़ा।
यादें लौट आईं। वही बेटा जो एक दिन कह गया था, ‘आपने क्या किया ज़िंदगी में?’ और फिर शहर जाकर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
हर त्यौहार पर रामनाथ उसका इंतज़ार करता रहा। मिठाई का डिब्बा सूखता रहा पर उम्मीद नहीं मरी। और आज जब मौत बेटे के सिर पर थी, वो बाप फिर से खड़ा था बिना शिकायत, बिना दूरी नापे।
ऑपरेशन के बाद आशीष ने पूछा, ‘मेरे लिए कौन आया?’
डॉक्टर मुस्कराया, ‘वो, जिसे तुमने भुला दिया था… पर जिसने तुम्हें कभी भुलाया नहीं। तुम्हारा बाप।’
आशीष बाहर भागा और पिता के कदमों में गिर पड़ा।
रामनाथ ने बस इतना कहा, ‘अब तो पहचान लिया ना बेटा? चल, घर चलें।’
उस दिन आशीष ने जाना सच्चा प्रेम न कभी दूर होता है, न कम। और मां-बाप को भूल जाना, इंसान की सबसे बड़ी दरिद्रता होती है।