● श्रीमती शुभदा रमेश कुलकर्णी

जयंती विशेष: भारत की तपोभूमि पर जब-जब अंधकार गहराता है, तब-तब एक दिव्य ज्योति प्रकट होती है। ऐसे ही तेजस्वी दीप थे परम पूज्य नाना महाराज तराणेकर, जिनका जीवन भक्ति, तप, सेवा और आत्मज्ञान का अनुपम संगम था।
13 अगस्त 1896, श्रावण शुद्ध पंचमी, वह पावन दिन जब एक विलक्षण आत्मा ने जन्म लिया। कर्क लग्न, श्रवण नक्षत्र और कन्या राशि जैसे शुभ योग इस जन्म को साधारण नहीं अपितु दिव्य बनाते हैं। उनके कुलदेव भगवान विठ्ठल के मंदिर में स्वयं परम् पूज्य वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे स्वामी) ने दत्तमूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की थी। नाना महाराज का जन्म उसी भूमि पर हुआ जिसे पहले ही तप से पावन किया जा चुका था।
बाल्यकाल में उनका नाम मार्तंड था पर सब उन्हें स्नेह से ‘नाना’ कहने लगे। पांच वर्ष की आयु में वे टेंबे स्वामी के चार्तुमास में तराणा पहुंचे। वे स्वामी की गोद में बैठकर प्रसाद पाते। यह कोई सामान्य बालक नहीं था। बालक मार्तंड की कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वामी महाराज ने त्रिपुरारी पूर्णिमा (22 नवंबर 1904) को गुरुमंत्र देकर आदेश दिया, ”तू दत्त का लाडला है, समाधि में मत रम; भक्तों को सहज मार्ग दिखा।’
उन्होंने वैदिक शिक्षा पिता शंकरशास्त्री से और आगे इंदौर में नरहर शास्त्री से ली। बुद्धिमत्ता और आत्मनिष्ठा से वे वेदों में पारंगत हुए। पर उनका जीवन मात्र अध्ययन नहीं, गुरुचरित्र का आत्मसात करना था। वह ग्रंथ उनके लिए पाठ नहीं, आत्मा की संजीवनी था।
13 बार नर्मदा परिक्रमा करनेवाले नाना महाराज को देशाटन के दौरान ग्वालियर के पास छाबड़ा नामक गांव के एक पुरातन मंदिर में प्रभु श्रीराम का दर्शन प्राप्त हुआ। काशी यात्रा के दौरान आनंदवन में उन्हें महादेव के दर्शन हुए। कालांतर में वृंदावन में यमुना किनारे भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बाल रूप में दर्शन दिए। उनकी अश्वत्थामा से भेंट जगविख्यात है। भगवान दत्तात्रेय से उनका संवाद सतत चलता रहता। उन्होंने चारधाम यात्रा, गिरनार यात्रा, हिमालय आदि तीर्थस्थलों की यात्रा की, जहां उन्हें कई ऋषियों के दर्शन हुए। उन्हें श्री क्षेत्र गाणगापुर विशेष प्रिय था। संगम के समीप 1983-84 में उन्होंने एक विशाल धर्मशाला और ‘साधना भवन’ का निर्माण कराया ताकि भक्तों को साधना का शांत स्थान मिल सके।
1984 में उनका यतीपूजन हुआ। उन्होंने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान में 32 महायज्ञ कराए और कई स्थानों पर पशुबलि की प्रथा को बंद करवाया। संगीत, ज्योतिष और संस्कारों में उनकी पकड़ अद्भुत थी। पं. कुमार गंधर्व से लेकर अजित कडकडे तक अनेक कलाकार उनके चरणों में प्रस्तुतियां देते।
नाना महाराज ने न केवल प्रवचन किए बल्कि ‘करुणात्रिपदी’ जैसी भक्ति प्रार्थना को जन-जन तक पहुंचाया। उन्होंने साधकों को बताया कि भक्ति दिखावे से नहीं, भीतर की पुकार से प्रस्फुटित होती है। आज वे हमारे बीच भले ही देह रूप में नहीं हैं परंतु उनकी वाणी, उनकी दृष्टि और उनकी साधना आज भी हमें भीतर से आलोकित करती है। उनकी साधना से जली दीपक की लौ उनके शिष्यों के रूप में कई घरों में टिमटिमा रही है।
श्री सद्गुरुनाथ महाराज की जय