● सूर्यकांत उपाध्याय

आचार्य महीधर एक रात वन में वटवृक्ष, सरोवर और शिव मंदिर के समीप विश्राम हेतु रुके। आधी रात को भयानक अंधकार और जीवों की आवाज़ों के बीच उनकी नींद टूटी। उन्होंने सिसकियों की आवाज़ सुनी और पास के एक कूप में झाँककर देखा पांच प्रेत किलबिला रहे थे।
दया से विवश आचार्य ने कारण पूछा। पहला प्रेत ब्राह्मण था, जिसने विद्या को अधर्म फैलाने और यजमानों से द्रव्य-दोहन में लगाया। दूसरा क्षत्रिय था, जो रक्षक से भक्षक बन गया, स्त्री-बालकों तक को नहीं छोड़ा। तीसरा वैश्य, जिसने व्यापार में विश्वासघात, हत्या और धोखा कर अपार पाप कमाया। चौथा शूद्र, जिसने पत्नी को सबकुछ और माता-पिता को तिरस्कार दिया, अनेक विवाह कर पत्नियों को सताया। पांचवां कलाकार था जिसने अपनी कला, लेखनी, संगीत व मूर्तियों से समाज में वासना व विकृति फैलाई। वह आज भी लज्जा से अपना मुख नहीं दिखा सकता।
आचार्य ने समझा जब समाज का हर वर्ग अपने कर्तव्यों से विमुख हो रहा है तो प्रेतों की संख्या और पृथ्वी की दुर्गति अकल्पनीय होगी। उन्होंने संकल्प लिया जन-जन को कर्तव्य पथ पर लौटाने का। प्रातः होते ही वे चल पड़े, पांच प्रेतों की कथा लेकर, पथभ्रष्टों को दिशा दिखाने।