● सूर्यकांत उपाध्याय

त्रेता युग में अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप संतानहीन थे। एक दिन वे अपनी धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पहुँचे। गुरु वसिष्ठ ने उनके आकस्मिक आगमन का कारण पूछा तो महाराज ने पुत्र प्राप्ति की अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की और इसके लिए महर्षि से प्रार्थना की।
गुरुदेव वसिष्ठ ने ध्यानमग्न होकर उनके निःसंतान होने का कारण जाना। उन्होंने कहा—
‘राजन्! जब आप देवराज इन्द्र से विदा लेकर स्वर्ग से पृथ्वी की ओर लौट रहे थे, तब मार्ग में खड़ी कामधेनु को आपने प्रणाम नहीं किया। आप शीघ्रता में थे, अतः आपने उन्हें देखा भी नहीं। इस अनादर से रुष्ट होकर कामधेनु ने आपको यह शाप दिया कि जब तक आप उनकी संतान की सेवा नहीं करेंगे, तब तक आपको संतान सुख प्राप्त नहीं होगा।’
महाराज दिलीप विनम्रता से बोले
‘गुरुदेव! समस्त गौवंश कामधेनु की संतान है। गौ सेवा तो परम पुण्य का कार्य है। मैं अवश्य गायों की सेवा करूंगा।’
गुरु वसिष्ठ ने कहा-
‘मेरे आश्रम में ‘नंदिनी’ नामक गाय है, जो कामधेनु की पुत्री है। आप उसकी सेवा करें।’
महाराज दिलीप प्रतिदिन प्रातःकाल नंदिनी के साथ वन में जाते। वह जहाँ जाती, वे उसके साथ चलते; वह जहाँ रुकती, वहीं रुकते; वह जब जल पीती, तब वे भी जल ग्रहण करते। संध्या समय जब नंदिनी आश्रम लौटती तो वे भी उसके साथ लौटते। महारानी सुदक्षिणा प्रतिदिन प्रातः-सायं नंदिनी की श्रद्धापूर्वक पूजा करती थीं। इस प्रकार राजा ने एक माह तक नंदिनी की सेवा निष्ठा और प्रेम से की।
एक दिन सेवा का एक महीना पूर्ण होने को था। उसी दिन महाराज वन में कुछ सुंदर पुष्पों को देखने में थोड़े समय के लिए नंदिनी से अलग हो गए। इतने में नंदिनी की करुण रंभा सुनाई दी। राजा दौड़ते हुए पहुँचे तो देखा कि एक विशालकाय शेर नंदिनी को दबोचे बैठा है।
राजा ने तुरन्त धनुष-बाण उठाया किंतु जैसे ही उन्होंने तरकश से बाण निकालने का प्रयास किया, उनका हाथ तरकश से चिपक गया। तभी वह शेर मानव वाणी में बोला—
“राजन्! मैं कोई साधारण वन्य पशु नहीं, भगवान शिव का सेवक हूँ। भूख से व्याकुल हूँ, इस गाय को खाकर अपनी क्षुधा शांत करूंगा। आप लौट जाइए।”
राजा दिलीप ने करबद्ध हो कर उत्तर दिया- ‘आप शिवभक्त हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपा करके इस गौ को छोड़ दें। यदि आपको अपनी भूख शांत करनी ही है तो मैं प्रस्तुत हूँ। मुझे अपना आहार बना लीजिए।’
शेर ने उन्हें बहुत समझाने का प्रयास किया परन्तु राजा नहीं माने। अंततः वे हाथ जोड़कर विनीत भाव से शेर के सामने भूमि पर नतमस्तक हो गए।
उसी क्षण नंदिनी ने मनुष्य की भाषा में कहा, ‘राजन्! आप उठिए। यह कोई शेर नहीं था। यह सब मेरी माया थी। मैं आपकी निष्ठा और सेवा की परीक्षा ले रही थी। आपकी सेवा से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ।’
कुछ महीनों पश्चात महारानी सुदक्षिणा गर्भवती हुईं और उन्हें एक तेजस्वी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उस पुत्र का नाम ‘रघु’ रखा गया, जिनके नाम पर ही रघुवंश की स्थापना हुई। अनेक पीढ़ियों के बाद इसी पवित्र वंश में भगवान श्रीराम का अवतार हुआ।