● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार नारद जी विष्णुलोक जा रहे थे। रास्ते में एक संतानहीन व्यक्ति मिला, जिसने उनसे संतान का आशीर्वाद मांगा। नारद जी ने कहा कि वे भगवान श्रीहरि से पूछेंगे। भगवान ने बताया कि उसके पूर्व जन्म के कर्म ऐसे हैं कि कई जन्मों तक उसे संतान नहीं होगी। नारद जी लौटते समय उससे मिले बिना निकल गए।
कुछ समय बाद, वही व्यक्ति एक अन्य महात्मा से मिला। उन्होंने आशीर्वाद दिया और नौ महीने में उसके घर पुत्र जन्मा। वर्षों बाद वह व्यक्ति पुत्र को नारद जी के चरणों में डालकर बोला, ‘यह दूसरे महात्मा के आशीर्वाद से हुआ है।’
नारद जी को भगवान पर क्रोध आया।
भगवान ने नारद जी की शंका का उत्तर देने के लिए एक परीक्षा रखी। भगवान ने कहा कि लक्ष्मी जी की दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। नारद जी लोक-लोक घूमे, कोई तैयार न हुआ। अंत में वही महात्मा तुरंत अपना कलेजा दे बैठे और प्राण त्याग दिए।
भगवान ने कहा, ‘देखा नारद! जो भक्त मेरे लिए प्राण तक दे सकता है, उसके लिए मैं अपना विधान भी बदल देता हूं। त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूं और उसी अनुपात में उन्हें श्रेय देता हूं।’
नारद जी लज्जित हुए। श्रीहरि ने उस महात्मा को पुनर्जीवित कर दिया।
।। श्री हरिः शरणम् ।।