
● 90 बरस की उम्र में भी कलम से रच रहे हैं अनगिनत गीत, नज़्में और कहानियाँ
● गीत, नज़्म और फ़िल्मों के माध्यम से समय की नब्ज़ थामे एक अद्वितीय शायर

जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन बरंजिश
बेहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
यह 80 के दशक का मशहूर गीत है, जिसे आज का युवा भी गुनगुनाता है। पर गाने की शुरुआती दो पंक्तियाँ 90 फ़ीसदी लोगों को समझ नहीं आतीं। इसका अर्थ कुछ ऐसा है ‘मेरे दिल का ख़्याल करो, इस पर नाराज़गी मत जताओ। इस बेचारे दिल ने हाल ही में जुदाई का दर्द सहा है!’ प्रसिद्ध सूफ़ी फनकार अमीर खुसरो की रचना से प्रेरित होकर वास्तव में गुलज़ार साहब ने इस सुंदर गीत को जन-जन तक पहुँचाया था, जो साहित्य प्रेमियों के लिए एक शानदार, चमकीला और बेशकीमती ख़ज़ाना है।
18 अगस्त 1934 को इस धरती पर एक सितारे ने जन्म तो ‘संपूर्ण सिंह कालरा’ के नाम से लिया था पर पूरी दुनिया में रौशनी बिखेरी ‘गुलज़ार’ के नाम से!

आज 90 साल की उम्र पार कर चुके गुलज़ार एक मशहूर शायर हैं, जो फ़िल्में बनाते हैं। गुलज़ार एक अप्रतिम फ़िल्मकार हैं, जो कविताएँ लिखते हैं। एक कहानीकार हैं, जो अपनी कल्पनाओं की दुनिया की सैर कराते हैं। मौसिकी के एक फनकार हैं, जो दिलों में बस जाते हैं। सच कहूँ तो साहित्य के पुरोधा गुलज़ार की यात्रा बिमल राय के सहायक निर्देशक के रूप में शुरू हुई थी।
पढ़ने-लिखने के शौक ने उन्हें मोटर गैरेज पर काम करते वक़्त भी नहीं छोड़ा, जहाँ वे रंग-रोगन की ख़ातिर आई हुई गाड़ियों पर रंग मिलाने का काम किया करते थे। बक़ौल गुलज़ार, उन्हें वहाँ पढ़ने-लिखने के लिए बड़ा वक़्त मिल जाया करता था। फ़िल्मों में काम करने को लेकर उनके ख़्याल थोड़े अलग किस्म के थे। वो मानते थे कि फ़िल्मों में बहुत पढ़े-लिखे लोग नहीं जाते। जब फ़िल्मकार बिमल राय की फ़िल्म में गीत लिखने को उनसे कहा गया तो वे थोड़े हिचकिचाए। तब महान गीतकार शैलेन्द्र ने उनसे कहा ‘जाते क्यों नहीं? फ़िल्मों में सब ग़ैर पढ़े-लिखे ही काम करते हैं क्या?’

इस स्नेहिल ठिठोली के बाद ही वे गीत लिखने को तैयार हुए। और तब आया वह गीत, जिसे आज हम सब जानते हैं, बंदिनी फ़िल्म का ‘मोरा गोरा रंग लइ ले’। यह गुलज़ार साहब की हिंदी सिनेमा में पहली दस्तक थी और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। फ़िल्मी दुनिया के तमाम गीत, जिन्हें गुलज़ार साहब की क़लम ने अंजाम दिया, आज भी संगीत के आसमान पर सितारों की तरह जगमगा रहे हैं और रौशनी बिखेर रहे हैं।
संबंधों की बात करें तो ट्रेज़डी क्वीन मीना कुमारी और गुलज़ार के रिश्ते भावनाओं से भरे हुए रहे। मीना ने मौत से पहले अपनी तमाम डायरी और शायरी की कॉपियाँ गुलज़ार को सौंप दी थीं। गुलज़ार ने उन्हें संपादित कर बाद में प्रकाशित भी कराया। आज भी गुलज़ार के ऑफ़िस की दीवार पर ट्रेज़डी क्वीन मीना कुमारी का चित्र बोलता सा नज़र आता है। मीना कुमारी की मौत 1972 में हुई थी।
इसके बाद साल 1973 में गुलज़ार का संयोग कुछ ऐसा बना कि उन्होंने फ़िल्म अभिनेत्री राखी से शादी कर ली। गुलज़ार ने शादी में सिर्फ एक शर्त रखी कि राखी शादी के बाद फ़िल्मों में काम नहीं करेंगी। राखी ने उनकी बात मानी और काम बंद कर दिया। इसके बावजूद इन दोनों की कभी नहीं बनी और तीन साल बाद राखी, अपनी बेटी मेघना को लेकर गुलज़ार से अलग हो गईं और उन्होंने फिर से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया।

रिश्तों में मायूसी मिलने के बाद भी फ़िल्मों की दुनिया में उनकी कविताई इस तरह चली कि हर कोई गुनगुनाने लगा। एक ‘गुलज़ार-टाइप’ बन गया। अनूठे संवाद, अविस्मरणीय पटकथाएँ, आसपास की ज़िन्दगी से उठाए गए लम्हों को समेटती मुग्धकारी फ़िल्में। ‘परिचय’, ‘आँधी’, ‘मौसम’, ‘किनारा’, ‘ख़ुशबू’, ‘नमकीन’, ‘अंगूर’, ‘इजाज़त’ हर एक अपने में अलग। साल 1934 में झेलम ज़िले के दीना गाँव (अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलज़ार ने रिश्तों और राजनीति, दोनों की बराबर परख की। उन्होंने ‘माचिस’ और ‘हू-तू-तू’ बनाई, ‘सत्या’ के लिए लिखा, ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है…’।
आज 90 साल की उम्र में भी सफ़र यूँ ही जारी है। फ़िल्में भी हैं और ‘पाजी नज़्मों’ का ख़ज़ाना भी आकार ले रहा है। गुलज़ार साहब हमारे अपने ज़माने की उर्दू शायरी की बड़ी शख़्सियत तो हैं ही, पर उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि उनके जैसा शायर उर्दू में पहले कभी नहीं हुआ।
गुलज़ार साहब वर्तमान से जुड़े हुए हैं, समय की नब्ज़ को पकड़े हुए हैं। वे इस बात का रोना नहीं रोते कि पुराना ज़माना अच्छा था और नया बुरा है। वे नए ज़माने को भी सकारात्मक चुनौती के तौर पर लेते हैं और उसी के साथ कदमताल भी करते हैं। यही वजह है कि वे हर बार नए नज़र आते हैं।

गुलज़ार साहब की यह ख़ुशक़िस्मती है कि उनकी शोहरत उन फ़िल्मी सितारों जैसी है, जो सीधे सिनेमा के पर्दे पर देखे जाते हैं, जबकि गुलज़ार साहब तो हरदम पर्दे की ओट में छिपे रहे गीतकार ही नहीं बल्कि फ़िल्म-निर्देशक के तौर पर भी! उनकी छवि इतनी व्यापक है कि उनका कवि उसमें कहीं छिप-सा जाता है, जैसे उस पर सिनेमा का ग्रहण लग गया हो।