● सूर्यकांत उपाध्याय

एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था, जो कई फैक्ट्रियों का मालिक था। एक शाम उसे अचानक गहरी बेचैनी हुई। डॉक्टर बुलाए गए, सारी जाँच हुई पर कुछ पता नहीं चला। दवा और नींद की गोलियाँ लेने पर भी न नींद आई, न बेचैनी घटी।
रात के तीन बजे वह घर के बगीचे में टहलने लगा, फिर शांति खोजते हुए सड़क पर निकल पड़ा। चलते-चलते थककर एक चबूतरे पर बैठ गया। तभी एक कुत्ता उसकी चप्पल उठा ले गया। वह दूसरी चप्पल लेकर उसके पीछे दौड़ा और झुग्गियों तक पहुँच गया। वहीं उसे किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई दी।
पास जाकर देखा तो एक औरत फटेहाल चादर पर बैठी रो रही थी। पूछने पर उसने बताया कि उसकी 7-8 साल की बच्ची बहुत बीमार है, इलाज के लिए ढेर सारा खर्च चाहिए। वह घर-घर झाड़ू-पोछा कर पेट पालती है पर इतने पैसे कहाँ से लाए? सबके पास जाकर देख लिया, किसी ने मदद नहीं की।
उसने कहा, ‘कल एक संत ने मुझे बताया कि सुबह चार बजे ईश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना करना, वह अवश्य सुनेगा। इसलिए मैं रोकर उसी से मदद माँग रही हूँ।’
सेठ का दिल पिघल गया। उसने तुरंत एम्बुलेंस बुलवाई, बच्ची को अस्पताल पहुँचाया और इलाज का सारा खर्च उठाया। साथ ही उस औरत को अपने घर नौकरी दी, रहने की जगह और बच्ची की पढ़ाई का जिम्मा भी ले लिया।
सेठ नास्तिक था, पर उस पल उसकी बेचैनी मिट गई। वह सोचने लगा –
‘क्या यही ईश्वर हैं, जो मुझे यहाँ तक खींच लाए? न मैंने उस औरत की जात पूछी, न ईश्वर ने। उसने तो सिर्फ उसका दर्द देखा।’
अब सेठ समझ चुका था कि सेवा भी भक्ति है।