
● जयंती विशेष
हिंदी साहित्य का आकाश यदि तारों से भरा है तो उसमें हरिशंकर परसाई एक ऐसा ध्रुवतारा हैं, जिनकी चमक व्यंग्य की दिशा दिखाती है।
22 अगस्त 1924 को जन्मे परसाई जी ने कलम को हँसी का साधन नहीं बल्कि समाज को आईना दिखाने का हथियार बनाया।
उनके शब्दों में खिलखिलाहट भी है और भीतर छिपे दर्द की सिहरन भी। वे हँसाते हैं तो भीतर से झकझोरते भी हैं।
‘भोलाराम का जीव’ में आम आदमी की विवशता है तो ‘सदाचार का ताबीज’ में समाज का खोखलापन।
उनकी हर रचना मानो अन्याय और पाखंड पर करारा प्रहार हो।
परसाई जी ने व्यंग्य को जनचेतना का स्वर बनाया।
उनकी कलम ने ठिठुरते गणतंत्र को भी पुकारा और विकलांग श्रद्धा पर भी प्रश्न उठाए।
वे सचमुच शब्दों के साधक थे, जहाँ व्यंग्य केवल हँसाता नहीं बल्कि सोचने की आग भी जगाता है।
10 अगस्त 1995 को वे इस दुनिया से विदा हुए। लेकिन उनके व्यंग्य आज भी उतने ही जीवंत हैं- मानो कलम से अब भी कोई पुकार रहा हो, ‘जागो, और समाज को नया बनाने का साहस करो।’