● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार रास के पश्चात राधा और श्रीकृष्ण यमुना तट पर दीपदान के लिए पहुँचे। रात्रि की नीरवता में जल की लहरों पर तैरते दीपों की रेखाएँ मानो सृष्टि के मौन प्रार्थना-पथ को आलोकित कर रही थीं। गोपियाँ अपने मन की कामनाओं, श्रद्धा और भक्ति से दीप जलाकर यमुना में प्रवाहित कर रही थीं।
राधा ने देखा कि श्रीकृष्ण ध्यानपूर्वक उन्हीं दीपों को अपनी ओर खींच रहे थे जो उनकी दिशा में बह रहे थे और जो दीप इधर-उधर डगमगाते या डूबते प्रतीत होते, उन्हें वे सावधानीपूर्वक सीधा कर देते। राधा ने मुस्कराकर पूछा, ‘प्राणनाथ, क्या आप हर डूबते दीपक को बचा लेंगे?’
श्रीकृष्ण शांत मुस्कान के साथ बोले, ‘नहीं राधे, सबको नहीं… पर जो मेरी ओर बहता है, उसे मैं डूबने नहीं दूँगा।’
यह कहते हुए उन्होंने एक और काँपते दीपक को अपनी हथेली से थाम लिया।
उस क्षण राधा की आँखें भर आईं। उन्होंने जाना कि भक्ति का अर्थ केवल दीप जलाना नहीं बल्कि प्रभु की ओर बहना है। प्रभु हर किसी को नहीं थामते, लेकिन जो अपनी इच्छा, अहं और भय को छोड़कर उनकी ओर बढ़ता है, उसे वे कभी डूबने नहीं देते। यही सच्ची शरणागति है स्वयं को ईश्वर के हवाले कर देना और फिर निश्चिंत हो जाना कि अब वे सम्भाल लेंगे।
ईश्वर उसी की रक्षा करते हैं, जो स्वयं को उनकी ओर समर्पित करता है।
सीख : भक्ति केवल दिखावे का दीप जलाना नहीं बल्कि अपने जीवन को प्रभु की ओर बहा देना है। जब हम अपने संकोच, भय और अहंकार को छोड़कर पूरी श्रद्धा से उनकी शरण में जाते हैं, तब ईश्वर हमारे जीवन की डूबती नैया को थाम लेते हैं।