● सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार नदी ने समुद्र से बड़े ही गर्व से कहा, ‘बताओ, पानी के प्रचंड वेग से मैं तुम्हारे लिए क्या बहाकर लाऊँ? तुम चाहो तो मैं पहाड़, मकान, पेड़, पशु, मानव सभी को उखाड़कर ला सकती हूँ।’
समुद्र समझ गया कि नदी को अहंकार आ गया है। उसने कहा, ‘यदि मेरे लिए कुछ लाना ही चाहती हो तो थोड़ी-सी घास उखाड़कर ले आना।’
समुद्र की बात सुनकर नदी ने हँसते हुए कहा, ‘बस इतनी-सी बात! अभी आपकी सेवा में हाजिर कर देती हूँ।’
फिर नदी ने अपने जल का प्रचंड प्रवाह घास उखाड़ने के लिए लगाया परंतु घास नहीं उखड़ी। नदी ने हार नहीं मानी और बार-बार प्रयास किया, किंतु हर बार घास पानी के वेग के सामने झुक जाती और उखड़ने से बच जाती। अंततः नदी को सफलता नहीं मिली।
थकी-हारी, निराश नदी समुद्र के पास पहुँची और सिर झुकाकर बोली, ‘मैं मकान, वृक्ष, पहाड़, पशु, मनुष्य, सब कुछ बहाकर ला सकती हूँ परंतु घास उखाड़कर नहीं ला सकी। क्योंकि जब भी मैंने प्रचंड वेग से घास पर प्रहार किया, उसने झुककर अपने आप को बचा लिया और मैं खाली हाथ लौट आई।’
नदी की बात सुनकर समुद्र मुस्कुराया और बोला, ‘जो कठोर होते हैं, वे आसानी से उखड़ जाते हैं। लेकिन जिसने घास जैसी विनम्रता सीख ली हो, उसे प्रचंड वेग भी नहीं उखाड़ सकता।’
यह सुनकर नदी का घमंड चूर-चूर हो गया।