● सूर्यकांत उपाध्याय

बूढ़े दादाजी को उदास बैठे देख बच्चों ने पूछा, ‘क्या हुआ दादाजी, आज आप इतने उदास क्यों बैठे हैं? क्या सोच रहे हैं?’
‘कुछ नहीं, बस यूँ ही अपनी ज़िंदगी के बारे में सोच रहा था!’ दादाजी बोले।
‘जरा हमें भी अपनी लाइफ़ के बारे में बताइए न…’ बच्चों ने ज़िद की।
दादाजी कुछ देर सोचते रहे और फिर बोले, ‘जब मैं छोटा था, मेरे ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। मेरी कल्पनाओं की भी कोई सीमा नहीं थी। मैं दुनिया बदलने के बारे में सोचा करता था। जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, बुद्धि कुछ बढ़ी तो लगा कि दुनिया बदलना बहुत मुश्किल काम है। इसलिए मैंने अपना लक्ष्य छोटा कर लिया और सोचा दुनिया न सही, मैं अपना देश तो बदल ही सकता हूँ।’
दादा जी बोले, ‘फिर कुछ और समय बीता, मैं अधेड़ होने को आया तो लगा कि देश बदलना भी कोई मामूली बात नहीं है। हर कोई ऐसा नहीं कर सकता। तब सोचा, चलो मैं अपने परिवार और करीबी लोगों को बदलता हूँ। पर अफ़सोस! मैं वह भी नहीं कर पाया। और अब जब मैं इस दुनिया में कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि अगर मैंने खुद को बदलने का सोचा होता तो यह ज़रूर कर पाता। शायद मुझे देखकर मेरा परिवार भी बदल जाता, और उनसे प्रेरणा लेकर देश भी बदल जाता… और तब शायद मैं इस दुनिया को भी बदल पाता!’
यह कहते-कहते दादाजी की आँखें नम हो गईं और वे धीरे से बोले, ‘बच्चों! तुम मेरी जैसी गलती मत करना। कुछ और बदलने से पहले खुद को बदलना। बाकी सब अपने-आप बदलता चला जाएगा।’
सीख: हम सभी में दुनिया बदलने की ताक़त है, लेकिन इसकी शुरुआत खुद से ही होती है।
