■ हिमांशु राज़

भारत की सनातन संस्कृति में पितरों का स्मरण, तर्पण तथा श्राद्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि वंश परंपरा की आत्मीय कड़ी भी है। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में इस विषय को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है। काशी का पितृकुण्ड ऐसा ही दिव्य स्थल है, जहाँ पितरों की तृप्ति और वंशजों का उद्धार एक साथ संपन्न होता है। इस पुण्यकुण्ड में स्नान, श्राद्ध और पिण्डदान करने से पितर संतुष्ट होकर साधक को लोक और पारलोक दोनों में कल्याण प्रदान करते हैं।
काशीपुरी स्वयं भगवान विष्णु द्वारा रक्षित, भगवान महाकाल की स्थायी उपस्थिति और मातृशक्ति के संरक्षण से परिपूर्ण अविमुक्त क्षेत्र है। इसी काशी में पिशाचमोचन तीर्थ के दक्षिण स्थित पितृकुण्ड पितरों की तृप्ति और श्राद्धकर्म का परम केंद्र माना गया है। यहाँ कार्तिक, आश्विन, पितृपक्ष अथवा किसी भी संकल्पित तिथि पर श्रद्धापूर्वक तर्पण करने से साधक के पितर तुष्ट होकर अपनी संतान को आशीर्वाद देते हैं और कर्मबन्धन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
पितृकुण्ड के पश्चिमी तट पर स्वयंभू पित्रीश्वर महालिंग प्रतिष्ठित हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार भगवान शिव का यह स्वरूप विशेषतः पितरों की शांति और तुष्टि के लिए अवस्थित है। यहाँ माता स्वधा देवी भी विराजमान हैं, जिन्हें पितरों की तृप्ति की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है। महाभारत और पुराणों में उल्लेख है-
स्वधा नाम महादेवी पितॄणां च प्रसीदति।
तस्याः प्रसादात् तृप्यन्ति पितरः स्वर्गवासिनः।।
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि माता स्वधा ही पितृलोक को पोषित करने वाली शक्ति हैं। उनकी आराधना से पितर प्रसन्न होते हैं और वंशजों पर कल्याणकारी दृष्टि रखते हैं। यही कारण है कि काशी का पितृकुण्ड पितरों और वंशजों के मिलन का अद्वितीय स्थल माना जाता है।
स्कन्दपुराण में वर्णित है कि इस पवित्र क्षेत्र की रक्षा श्रीक्षिप्रप्रसादन गणेश करते हैं। ये काशी के छप्पन विनायकों में से एक हैं।
शास्त्र कहते हैं-
प्राच्यां पञ्चास्यतः पायात्पुरीं क्षिप्रप्रसादनः।
क्षिप्रप्रसादनार्थातः क्षिप्रं सिद्धयन्ति सिद्धयः।।
अर्थात् क्षिप्रप्रसादन गणेश की पूजा करने से साधक को सभी सिद्धियाँ शीघ्र ही प्राप्त होती हैं। ये गणेशजी पितृकुण्ड और संपूर्ण काशी की दिव्य नगरी के रक्षक देवता माने जाते हैं।
पितृकुण्ड के पूर्वी तट पर भगवान पित्रीश्वर के परम गण छागलीश द्वारा स्थापित छागलेश्वर महालिंग विराजमान हैं। ग्रंथों में वर्णित है कि इस महालिंग के दर्शन मात्र से साधक सामान्य पापों से मुक्त हो जाता है और जीव प्राकृत वासनाओं तथा विकारों से बचा रहता है- छागलेशं महालिङ्गं पित्रीश्वरसमीपगम्। विलोक्य पशुवत्कोऽपि न पापं प्राकृतं स्पृशेत्।।
यहाँ किया गया दर्शन और पूजन साधक को स्थायी पवित्रता एवं धर्मनिष्ठा प्रदान करता है।

पुराणों में काशी के दक्षिण क्षेत्र में पिशाचमोचन तीर्थ का उल्लेख आता है, जो पिशाच बाधाओं और अदृश्य भय को दूर करता है। इसी तीर्थ के दक्षिण पितृकुण्ड स्थित है। ग्रंथ कहते हैं-तदुत्तरपिशाचेशः पैशाच्य पदहारकः।
पित्रीशस्तद्यमदिशि पितृकुण्डं तदग्रतः।।
तत्र श्राद्धकृतां पुंसां तुष्येयुः प्रपितामहाः।।
अर्थात् यहाँ श्राद्धकर्म करने वाला व्यक्ति अपने पितरों की अनंत कृपा प्राप्त करता है।
शास्त्रों एवं संतों की परंपरा के अनुसार काशी के पितृकुण्ड में श्राद्धकर्म का प्रभाव अन्य किसी भी स्थान की तुलना में अधिक होता है। यहाँ किए गए तर्पण से पितर अत्यंत संतुष्ट होकर संतति की रक्षा करते हैं। जीवन में सौभाग्य, संतान-समृद्धि, आयु-वृद्धि और पितृदोष से मुक्ति इस स्थल की कृपा से सहज ही प्राप्त होती है।
काशी का पितृकुण्ड केवल एक धार्मिक तीर्थ नहीं बल्कि पितरों और संतानों के अदृश्य बंधन का जीवंत केंद्र है। यहाँ भगवान पित्रीश्वर महालिंग, स्वधा देवी, छागलेश्वर महालिंग और क्षिप्रप्रसादन गणेश की उपस्थिति इस स्थल को और अधिक दिव्य और पूज्य बनाती है। यहाँ श्राद्ध, पिण्डदान और स्वधा देवी की उपासना द्वारा साधक अपने पितरों को तृप्त करता है तथा उनके आशीर्वाद से आत्मिक शांति और मोक्ष का मार्ग प्राप्त करता है।
सच ही कहा गया है, काशी का पितृकुण्ड पितरों का अद्वितीय केंद्र है, जो साधक को जीवन में कल्याण और मृत्यु के बाद मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। इसी परंपरा के क्रम में काशीवासियों द्वारा वर्ष भर शिवालयों में रुद्राभिषेक किया जाता है। आज आचार्य चंद्रशेखर द्रविड़ शास्त्री के नेतृत्व में नरेंद्र पाण्डेय, अजय शर्मा, नारायण घनपाठी, सूरज यादव सहित श्रद्धालुओं की टोली ने विधिवत पित्रीश्वर महादेव का अभिषेक कर पितृगणों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की।