
● सूर्यकांत उपाध्याय
पद्म पुराण के अनुसार अयोध्या का राजा बनने के बाद एक दिन भगवान श्रीराम के मन में विभीषण का विचार आया। उन्होंने सोचा, रावण की मृत्यु के बाद विभीषण किस प्रकार लंका का शासन कर रहे हैं, उन्हें कोई कठिनाई तो नहीं है। जब श्रीराम यह सोच ही रहे थे, तभी वहाँ भरत भी आ पहुँचे।
भरत के पूछने पर श्रीराम ने उन्हें पूरी बात बताई। विभीषण की कुशलक्षेम जानने की इच्छा से श्रीराम लंका जाने का निश्चय करते हैं। भरत भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। अयोध्या की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंपकर श्रीराम और भरत पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका की ओर प्रस्थान करते हैं।
यात्रा के दौरान पुष्पक विमान किष्किंधा नगरी पर पहुँचता है। वहाँ श्रीराम और भरत कुछ समय रुकते हैं और सुग्रीव सहित अन्य वानरों से भेंट करते हैं। जब सुग्रीव को ज्ञात होता है कि वे विभीषण से मिलने लंका जा रहे हैं, तो वह भी उनके साथ हो लेते हैं। मार्ग में श्रीराम भरत को वह सेतु दिखाते हैं, जिसे वानरों और भालुओं ने समुद्र पर बनाया था।
विभीषण को जब समाचार मिलता है कि श्रीराम, भरत और सुग्रीव लंका आ रहे हैं, तो वह पूरे नगर को सजाने का आदेश देते हैं। श्रीराम के लंका पहुँचने पर विभीषण उनसे मिलकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
श्रीराम तीन दिन तक लंका में ठहरते हैं। इस दौरान वे विभीषण को धर्म और अधर्म का ज्ञान देते हुए कहते हैं, “तुम सदा धर्मपूर्वक इस नगर पर राज्य करना।” पुनः अयोध्या लौटने के समय जब श्रीराम पुष्पक विमान पर बैठते हैं, तो विभीषण उनसे निवेदन करते हैं, “हे प्रभु! जैसा आपने मुझे आदेश दिया है, वैसा ही मैं धर्मपूर्वक राज्य करूंगा। परंतु जब इस सेतु मार्ग से मनुष्य आकर मुझे सताने लगेंगे, तब मुझे क्या करना चाहिए?”
विभीषण की बात सुनकर श्रीराम ने अपने बाणों से उस सेतु को दो भागों में विभाजित कर दिया। फिर उसे तीन टुकड़ों में कर बीच का हिस्सा भी अपने बाणों से तोड़ दिया। इस प्रकार स्वयं भगवान श्रीराम ने ही रामसेतु को तोड़ा था।
• पद्मपुराण (पातालखण्ड, अध्याय 114)। इस प्रसंग को राम सेतु-भंग कहा गया है।