● सूर्यकांत उपाध्याय

लंका विजय के बाद जब राम का राज्याभिषेक हुआ तो सभी वानर और राक्षस मित्रों को ससम्मान विदा किया गया। अंगद को विदा करते समय राम भावुक हो उठे किंतु हनुमान को विदा करने की शक्ति वे भी न जुटा पाए। माता सीता उन्हें पुत्रवत् मानती थीं, इसलिए वे अयोध्या में ही रुक गए।
एक संध्या राम अपने कक्ष में परिवार सहित बैठे थे। पूरा परिवार वर्षों बाद साथ था। परंतु हनुमान भी वहीं उपस्थित थे, जो कुछ वधुओं को अनुचित लगा। सबसे छोटे शत्रुघ्न ने संकेतों से उन्हें जाने का आग्रह किया, पर हनुमान समझ न सके। अंततः राम ने स्वयं कहा, ‘वीर, अब तुम भी विश्राम करो।’
हनुमान ने उत्तर दिया, ‘प्रभु, आपके सम्मुख रहना ही सबसे बड़ा विश्राम है। मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।’ शत्रुघ्न ने स्पष्ट कहा कि भैया को एकांत चाहिए। हनुमान ने तर्क दिया कि सीता जी भी तो यहीं हैं। इस पर शत्रुघ्न ने कहा, ‘माता को साथ रहने का अधिकार सिंदूर के कारण है।’
यह सुन हनुमान चकित रह गए और सोचते हुए बाहर निकल आए।
अगली सुबह दरबार में व्यापारी शिकायत लेकर पहुँचे कि रातभर हनुमान ने उनके भंडारगृहों में उत्पात मचाया। तभी सभा में स्वयं हनुमान उपस्थित हुए। उनका सम्पूर्ण शरीर सिंदूर से लेपित था। चलते हुए उनके शरीर से सिंदूर झर रहा था और पूरी सभा हँसी से गूँज उठी।
लक्ष्मण ने आश्चर्य से पूछा, ‘कपिश्रेष्ठ, यह क्या किया?’ हनुमान हँसते हुए बोले, ‘मुझे ज्ञात हुआ कि सिंदूर लगाने से प्रभु के निकट रहने का अधिकार मिलता है। सो मैंने अयोध्या का सारा सिंदूर अपने ऊपर लगा लिया ताकि मुझे कोई उनसे दूर न कर सके।’
सभा ठहाकों से गूँज उठी। परंतु भरत की आँखों से आँसू बह निकले। शत्रुघ्न ने कारण पूछा तो भरत बोले, ‘अनुज, देखो! वानरों का यह महान नेता, शास्त्र मर्मज्ञ, सिद्धियों का स्वामी, सम्पूर्ण विद्वानों में श्रेष्ठ आज अपनी सारी विद्या और सामर्थ्य भूलकर केवल प्रभु की भक्ति में डूबा है। यह निकटता पाने की उत्कंठा ही इसे भक्तों का शिरोमणि बना देती है। संसार मुझे राम का अनुज कहकर भुला सकता है पर इस हनुमान को कभी नहीं भुला पाएगा।’