● सूर्यकांत उपाध्याय

समुद्र तट के एक नगर में एक धनवान वैश्य के पुत्रों ने एक कौआ पाल रखा था। वे उसे अपनी जूठन से स्वादिष्ट भोजन खिलाते थे। भोजन के कारण कौआ मोटा और शक्तिशाली हो गया। धीरे-धीरे उसमें अहंकार भर गया। वह श्रेष्ठ पक्षियों को भी तुच्छ समझने और अपमानित करने लगा।
एक दिन कुछ हंस समुद्र तट पर उतरे। वैश्य के पुत्र उनकी सुंदरता की प्रशंसा करने लगे। यह देखकर कौआ असहज हो उठा और उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होने वाले हंस को चुनौती दी, ‘मैं तुम्हारे साथ उड़ान प्रतियोगिता करना चाहता हूं।’
हंस ने समझाया, ‘भाई, हमारा निवास मानसरोवर है। हम दूर-दूर तक उड़ते हैं। तुम्हें हमारे साथ प्रतियोगिता से क्या मिलेगा?’
परंतु अहंकारी कौआ बोला, ‘मैं उड़ने की सौ गतियां जानता हूं और हर गति से सौ योजन तक उड़ सकता हूं। बताओ, तुम किस गति से उड़ना चाहते हो?’
हंस ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘मैं तो केवल वही गति जानता हूं जिसे सभी पक्षी जानते हैं।’
कौए का गर्व और बढ़ गया। वह बोला, ‘ठीक है, उसी गति से उड़ो।’
फिर दोनों समुद्र की ओर उड़े। कौआ तरह-तरह की कलाबाजियां दिखाता हुआ आगे निकल गया। हंस अपनी स्वाभाविक गति से धीरे-धीरे उड़ता रहा।
कुछ ही देर में कौए के पंख थकने लगे। उसने विश्राम के लिए कहीं द्वीप खोजा पर चारों ओर केवल अथाह सागर था। थका-मांदा कौआ समुद्र में गिरने की स्थिति में पहुंच गया।
हंस ने उसकी दशा देखकर पूछा, ‘काक! यह कौन-सी गति है, जिसमें तुम्हारे पंख डूब रहे हैं?’
लज्जित कौआ बोला, ‘ हे हंस! हमें तो केवल कांव-कांव करना आता है। दूर उड़ना हमारे बस की बात नहीं। मैंने अपनी मूर्खता का दंड पा लिया है। कृपया मेरे प्राण बचा लो।’
हंस को दया आ गई। उसने कौए को अपनी पीठ पर बैठाया और सुरक्षित तट तक पहुंचा दिया।
सीख: यह कथा सिखाती है कि कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि अहंकार अंततः विनाश का कारण बनता है।