
● सूर्यकांत उपाध्याय
एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। उसका इकलौता बेटा था, जिसके विवाह का उत्सव पूरे गाँव में धूमधाम से चल रहा था। उसी बीच एक थका-हारा साधु वहाँ आ पहुँचा। उसने बुढ़िया से आश्रय और भोजन माँगा। बुढ़िया ने कहा, “संतजी, खुशी से ठहर जाइए। यह चावल लीजिए और पका कर खा लीजिए। मैं विवाह की तैयारियों में व्यस्त हूँ, बस एक बात का ध्यान रखिए, कोई अशुभ वचन मुँह से न निकालिए।” साधु ने सहमति जताई और चावल लेकर रहने लगा।
दूसरे दिन वह भोजन पका ही रहा था कि बुढ़िया उधर से गुजरी। उसने साधु से हाल पूछा। साधु ने उसे बैठाया और बोला, “माता जी, आपके बेटे का ब्याह तो ठीक हो रहा है पर यदि इसी बीच वह बीमार पड़ जाए और मरणासन्न हो जाए, तो आप पर क्या बीतेगी?” बुढ़िया यह सुनकर चौंक गई। बोली, “संतजी, मुझ पर जो बीतेगी सो भुगत लूँगी पर आप कृपया अभी यहाँ से चले जाइए।”
साधु ने अपना सामान बाँधा और निकल पड़ा। उसके कपड़े से माँड़ (चावल का पानी) टपक रहा था। राह में किसी ने पूछा, “संतजी, यह क्या टपक रहा है?” साधु बोला, “यह मेरी आदत है, जो इस घिनौने रूप में बाहर निकलती रहती है। मैं इसे छिपा नहीं सकता।”
सीख: वाणी में संयम ही जीवन का सौंदर्य है क्योंकि शब्द ही भाग्य बना सकते हैं और वही उसे बिगाड़ भी सकते हैं।
