● सूर्यकांत उपाध्याय

पिछली रात बड़ी बेचैनी से कटी।
बमुश्किल सुबह एक रोटी खाकर घर से अपनी दुकान के लिए निकला।
आज किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूं, यह बात भीतर ही भीतर कचोट रही थी।
ज़िंदगी का हमेशा यही फ़लसफ़ा रहा है मेरा कि अपने आसपास किसी को रोटी के लिए तरसना न पड़े। लेकिन मंदी के बाद कोरोना और फिर एक और मंदी के कारण, जब कम दाम पर माल बेचना पड़ा तो बात अपने ही पेट पर आ पड़ी।
दो साल पहले ही अपनी सारी जमा-पूंजी लगाकर कपड़ों का एक छोटा-सा शोरूम खोला था, मगर अब दुकान की बिक्री आधी रह गई है। अपनी दुकान में दो लड़के और दो लड़कियाँ रखी थीं ग्राहकों को कपड़े दिखाने के लिए।
लेडीज डिपार्टमेंट की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं सकता। एक तो बिक्री ज़्यादातर उन्हीं की होती है, दूसरे, वे दोनों बहुत गरीब हैं। दो लड़कों में से एक पुराना है और घर में इकलौता कमाने वाला। जो नया लड़का है दीपक, विचार उसी पर किया है मैंने।
सुना है, उसका एक भाई अच्छी जगह नौकरी करता है। वो खुद भी तेज-तर्रार और हँसमुख है। उसे कहीं और काम मिल जाएगा, ऐसा सोचा था मैंने।
पिछले सात महीनों में मैं बिल्कुल टूट चुका हूं। स्थिति को देखते हुए एक वर्कर कम करना मेरी मजबूरी है। यही सब सोचता हुआ दुकान पहुंचा।
चारों पहले ही आ चुके थे।
मैंने सबको बुलाया और बड़ी उदासी से कहा, “देखो, दुकान की अभी की स्थिति तुम सब जानते हो। मैं तुम सबको काम पर नहीं रख सकता…”
उन चारों के माथे पर चिंता की लकीरें और गहरी होती चली गईं। मैंने पानी की बोतल उठाई और गला तर किया।
“किसी एक का हिसाब आज कर देता हूं… दीपक, तुम्हें कहीं और काम ढूंढना होगा…”
“जी अंकलजी…”
मैंने उसे पहली बार इतना उदास देखा।
बाकियों के चेहरों पर भी कोई प्रसन्नता नहीं थी।
एक लड़की जो शायद उसी के मोहल्ले से आती थी, कुछ कहकर रुक गई।
“क्या बात है, बेटी… तुम कुछ कह रही थी?”
“अंकलजी… इसके भाई का भी काम एक महीने पहले छूट गया है… और इसकी मम्मी बीमार रहती हैं…”
मेरी नजर दीपक के चेहरे पर गई।
आँखों में ज़िम्मेदारी के आँसू थे, जिन्हें वो अपने हँसमुख चेहरे से छुपा रहा था।
मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही दूसरी लड़की बोली “अंकलजी… बुरा न मानें तो एक बात कहूं?”
“हाँ-हाँ बेटा, कहो ना…”
“किसी को निकालने से अच्छा है, हमारे पैसे कम कर दीजिए।
बारह हज़ार की जगह नौ हज़ार कर दीजिए आप…”
मैंने बाकियों की ओर देखा,
“हाँ साहब… हम इतने में ही काम चला लेंगे…”
बच्चों ने मेरी परेशानी को आपस में बाँटकर,
मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया था।
“पर तुम्हें यह कम नहीं पड़ेगा न?”
“नहीं साहब… कोई साथी भूखा रहे,
इससे अच्छा है कि हम सब अपना निवाला थोड़ा-थोड़ा कम कर दें…”
मेरी आँखों से आँसू बह निकले…
और वे सभी बच्चे अपने काम में लग गए। मेरी नजरों में, मुझसे कहीं ज्यादा बड़े बनकर।
