
● नई दिल्ली ।
मनुष्य सहित सभी स्तनधारी प्रजातियों में जन्म के बाद कुछ वर्षों तक ही दूध पचाने वाला एन्जाइम लैक्टेज बनता है। जैसे ही शैशवावस्था समाप्त होती है, अधिकांश जीवों में यह एन्जाइम बनना बंद हो जाता है, जिससे दूध में मौजूद शुगर लैक्टोज पच नहीं पाती। यही स्थिति मनुष्यों में भी रही। लंबे समय तक वयस्क अवस्था में दूध पीना संभव नहीं था।
करीब आठ से दस हजार वर्ष पहले जब यूरोप और कुछ अफ्रीकी क्षेत्रों में डेयरी पशुपालन शुरू हुआ, तब एक आनुवंशिक परिवर्तन हुआ जिसने कुछ आबादियों को जीवनभर लैक्टेज उत्पादन की क्षमता दी। इस गुण को लैक्टेज निरंतरता कहा जाता है। यह एक बड़ा जैविक लाभ साबित हुआ क्योंकि दूध से प्रोटीन, कैल्शियम और ऊर्जा का स्थायी स्रोत मिलने लगा।
आज भी दुनिया की लगभग 65 प्रतिशत आबादी में यह क्षमता नहीं है। पूर्वी एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के अधिकांश वयस्कों को दूध पचाने में कठिनाई होती है। वहीं, उत्तर यूरोप और भारत के कुछ हिस्सों में यह जीन परिवर्तन अधिक पाया जाता है, जिससे लोग दूध सहजता से पचा लेते हैं।
इस प्रकार दूध पचाने की क्षमता कोई सार्वभौमिक मानवीय गुण नहीं बल्कि सभ्यता और आनुवंशिकी के मेल से विकसित हुआ एक अद्भुत उदाहरण है जहाँ संस्कृति ने जीवविज्ञान को बदल दिया।
