● सूर्यकांत उपाध्याय

प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर ही शिक्षा प्राप्त किया करते थे। बच्चे को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता था। गुरुकुल में वे गुरु के सान्निध्य में रहते हुए आश्रम की देखभाल करते और अध्ययन भी करते थे।
वरदराज को भी सभी की तरह गुरुकुल भेज दिया गया। वहाँ वह अपने साथियों के साथ घुलने-मिलने लगा।
परंतु वह पढ़ाई में बहुत कमजोर था। गुरुजी की कोई भी बात उसे बहुत कम समझ में आती थी। इसी कारण वह सबके बीच उपहास का पात्र बन गया।
जब उसके सारे साथी अगली कक्षा में चले गए तो वह आगे नहीं बढ़ पाया। अंततः गुरुजी ने भी हार मानकर कहा, “बेटा वरदराज, मैंने तुम्हें सिखाने के हर संभव प्रयास किए पर अब यही उचित होगा कि तुम यहाँ अपना समय व्यर्थ न करो। अपने घर लौट जाओ और घरवालों के कार्यों में सहायता करो।”
वरदराज ने सोचा कि शायद विद्या उसकी किस्मत में नहीं है। वह भारी मन से गुरुकुल से घर के लिए निकल पड़ा। दोपहर का समय था। रास्ते में उसे प्यास लगी। इधर-उधर देखने पर उसने देखा कि थोड़ी दूर पर कुछ महिलाएँ कुएँ से पानी भर रही हैं। वह कुएँ के पास पहुँचा।
वहाँ पत्थरों पर रस्सी के आने-जाने से गहरे निशान पड़े हुए थे। उसने महिलाओं से पूछा, “माँ, ये निशान आपने कैसे बनाए?”
एक महिला ने मुस्कराकर उत्तर दिया, “बेटे, ये निशान हमने नहीं बनाए। पानी खींचते समय इस कोमल रस्सी के बार-बार आने-जाने से ये निशान अपने आप ठोस पत्थर पर बन गए हैं।”
वरदराज गहरे विचार में पड़ गया। उसने मन ही मन सोचा,“जब एक कोमल रस्सी के लगातार प्रयास से ठोस पत्थर पर निशान बन सकते हैं तो मैं निरंतर अभ्यास से विद्या क्यों नहीं प्राप्त कर सकता?”
यह सोचकर वह नए उत्साह के साथ वापस गुरुकुल लौटा और अथक परिश्रम में जुट गया। गुरुजी ने भी प्रसन्न होकर उसका पूरा सहयोग किया। कुछ ही वर्षों में वही मंदबुद्धि बालक वरदराज संस्कृत व्याकरण का महान विद्वान बन गया। उसने लघुसिद्धान्तकौमुदी, मध्यसिद्धान्तकौमुदी, सारसिद्धान्तकौमुदी और गीर्वाणपदमंजरी जैसी प्रसिद्ध रचनाएँ कीं।
शिक्षा : अभ्यास की शक्ति आपके हर सपने को साकार कर सकती है।
