■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक बार एक युवक कबीरदास जी के पास आया और बोला, “गुरु महाराज! मैंने अपनी शिक्षा से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
मैं विवेकशील हूं और अपना अच्छा-बुरा भली-भांति समझता हूं। किंतु फिर भी आप मुझे निरंतर सत्संग करने की सलाह देते रहते हैं। जब मैं इतना ज्ञानवान और विवेकयुक्त हूं तो मुझे प्रतिदिन सत्संग की क्या आवश्यकता है?”
कबीर ने उसके प्रश्न का मौखिक उत्तर न देते हुए पास ही पड़ी एक हथौड़ी उठाई और जमीन में गड़े एक खूंटे पर प्रहार किया। युवक अनमने भाव से वहां से चला गया।
अगले दिन वह फिर कबीर के पास आया और बोला, “गुरुदेव, मैंने आपसे कल एक प्रश्न पूछा था, किंतु आपने उत्तर नहीं दिया। क्या आज आप उसका उत्तर देंगे?”
कबीर ने फिर से उसी खूंटे पर हथौड़ी मारी, किंतु बोले कुछ नहीं।
युवक ने सोचा, “संत पुरुष हैं, शायद आज भी मौन व्रत में हैं।”
वह तीसरे दिन फिर आया और अपना प्रश्न दोहराया।
कबीर ने पुनः खूंटे पर हथौड़ी चलायी।
अब युवक अधीर होकर बोला, “गुरुदेव! आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं दे रहे हैं? मैं तीन दिन से आपसे एक ही प्रश्न पूछ रहा हूं!”
कबीर मुस्कराए और बोले, “मैं तो तुम्हें रोज उत्तर दे रहा हूं। मैं इस खूंटे पर हर दिन हथौड़ी मारकर उसकी पकड़ को मजबूत कर रहा हूं। यदि ऐसा न करूं तो किसी पशु की खींचतान से, किसी की ठोकर से या भूमि की हलचल से यह खूंटा ढीला होकर निकल जाएगा।”
“यही कार्य सत्संग और ध्यान हमारे जीवन में करते हैं। वे हमारे मनरूपी खूंटे पर निरंतर प्रहार करते हैं, जिससे हमारी पवित्र भावनाएं दृढ़ बनी रहती हैं।”
कबीर के इस उपदेश से युवक का संशय दूर हो गया और उसे सच्चे मार्ग का बोध हुआ।
नियमित ध्यान और सत्संग हृदय में सत् को दृढ़ करते हैं और असत् को मिटाते हैं।
इसीसे जीवन सरल और सुगम बनता है।
अतः सत्संग हमारी जीवनचर्या का अनिवार्य अंग होना चाहिए।
