- हिमांशु राज

भारत में जलवायु परिवर्तन अब केवल पर्यावरणीय चुनौती नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक संकट बन चुका है। इसका सबसे गहरा असर बच्चों पर पड रहा है, जो इस बदलाव के सबसे असुरक्षित शिकार भी हैं और भविष्य की सबसे बडी उम्मीद भी। मुंबई स्थित संगठन आंगन ट्रस्ट की रिपोर्ट द वल्नरेबल चाइल्ड एंड द क्लाइमेट क्राइसिस बताती है कि जलवायु से जुड़ी आपदाएं बच्चों के जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा को कई स्तरों पर प्रभावित कर रही हैं। गरीबी, कुपोषण और असमानता से जूझ रहे बच्चों पर यह बोझ और भारी हो गया है।
रिपोर्ट के अनुसार हर साल लगभग 2.4 करोड़ बच्चे साइकलोन, बाढ, सूखा और लू जैसी चरम घटनाओं से प्रभावित होते हैं। इससे स्कूल छोड़ने की दर बढ़ रही है, बाल मजदूरी और बाल विवाह के मामले बढ रहे हैं और बीमारियों का प्रसार तेज हो रहा है। चेतावनी है कि यदि बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा में तुरंत निवेश नहीं किया गया तो 2047 तक भारत को अपनी जीडीपी का लगभग 5.5 प्रतिशत नुकसान झेलना पड़ सकता है। और यदि बच्चों को नीतियों का केंद्र नहीं बनाया गया तो यह नुकसान 10 से 15 प्रतिशत तक भी पहुंच सकता है।
महाराष्ट्र उन छह राज्यों में शामिल है जो जलवायु संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, असम और राजस्थान भी इस सूची में हैं। 1970 के बाद से महाराष्ट्र में सूखा सात गुना और बाढ़ छह गुना बढ़ी है। वर्ष 2023 में राज्य के 66 प्रतिशत जिलों को सूखा प्रभावित घोषित किया गया, जबकि बाढ़ ने करीब 10 हजार घर तबाह कर दिये। सांगली, धुले, सोलापुर और अहिल्यानगर में बच्चे सबसे अधिक जोखिम में हैं। इन जिलों में कुपोषण की दर 19 से 39 प्रतिशत, स्कूल नामांकन 65 से 76 प्रतिशत और बच्चों से जुड़े अपराध 54 से 312 प्रति मिलियन के बीच दर्ज किये गये। अहिल्यानगर में 41 प्रतिशत बाल विवाह होना बेहद चिन्ताजनक है।

मराठवाड़ा की स्थिति और भी दयनीय है। लगातार सूखे, फसलें बरबाद होने और कर्ज के कारण पलायन यहां की नियति बन चुका है। अक्तूबर से ही हजारों परिवार गन्ना कटाई के लिये महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा की ओर पलायन करते हैं। खेत मालिक दंपती मजदूरों को प्राथमिकता देते हैं, इसलिये किशोर लड़कियों की जबरन शादी कर दी जाती है, जिसे स्थानीय बोली में गेट-केन वेडिंग कहा जाता है। एनएफएचएस-5 के अनुसार, मराठवाड़ा में 43 प्रतिशत महिलाएं 18 वर्ष से पहले विवाह कर लेती हैं जबकि बीड, जालना और परभणी में यह दर 45 से 51 प्रतिशत तक है। किशोर गर्भधारण के मामले भी राष्ट्रीय औसत से अधिक हैं। प्रवासी किशोरियों को अत्यधिक गर्मी, लंबे कार्य घंटे, खराब स्वच्छता और यौन हिंसा जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
आंगन ट्रस्ट बच्चों को जलवायु नीति के केंद्र में लाने की वकालत करता है। उसके यंगअर्थ फ्रेमवर्क में सुझाया गया है कि हीटवेव और बाढ़ जैसी आपदाओं के लिये अलग नीति बने, प्रवासी बच्चों को पोर्टेबल अधिकार मिलें, जिला स्तर पर जोखिमग्रस्त बच्चों का डेटा तैयार किया जाये और शिक्षा-पोषण-मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को आपदा प्रतिक्रिया से जोड़ा जाये। रिपोर्ट यह भी कहती है कि चीनी, कपड़ा और निर्माण उद्योगों में आपूर्ति श्रृंखला का ऑडिट अनिवार्य किया जाये ताकि बाल मजदूरी पर रोक लगे। साथ ही सुझाव है कि जलवायु वित्त का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा बच्चों की अनुकूलन परियोजनाओं के लिये आरक्षित किया जाये और स्थानीय पहलों को प्राथमिकता दी जाये।
स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन से जंग केवल तापमान और बाढ़ पर नियंत्रण की नहीं है बल्कि आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित रखने की है। जब तक जलवायु नीति और योजनाओं के केंद्र में बच्चे नहीं होंगे, भारत अपना भविष्य सुरक्षित नहीं कर पायेगा। बचपन की रक्षा ही पर्यावरण संरक्षण का सबसे मानवीय और स्थायी आधार बन सकती है।
