
■ हिमांशु राज़
- सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को मुंबई मेट्रो परियोजना के वृक्षारोपण पर फटकार लगाई। यह मामला बताता है कि हरित परियोजनाएँ केवल नाम से नहीं, बल्कि वास्तविक पर्यावरणीय संतुलन से सफल होती हैं। जानिए क्यों टिकाऊ विकास आज की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है।
भारत में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की जंग एक बार फिर सुर्खियों में है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई, जब यह सामने आया कि मुंबई मेट्रो परियोजना के दौरान काटे गए पेड़ों की भरपाई के तौर पर लगाए गए वृक्ष अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए। मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन द्वारा किए गए वृक्षांतरण (ट्री ट्रांसप्लांटेशन) के प्रयास नाकाम रहे, जिससे यह जाहिर हुआ कि “विकास” के नाम पर पर्यावरणीय जिम्मेदारी आज भी हाशिए पर है।
देश में कानून स्पष्ट है किसी भी परियोजना में जब वन भूमि का प्रयोग किया जाता है या पेड़ काटे जाते हैं, तो उसकी भरपाई समान या अधिक वृक्षारोपण से करनी होती है। यह सिर्फ कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती से लड़ने का सबसे बुनियादी और प्रभावशाली तरीका है। परंतु जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। अक्सर विकासकर्ता इन कार्यों को “चेकबॉक्स” के तौर पर निपटा देते हैं, कागज़ों पर पेड़ लग जाते हैं पर धरातल पर हरेपन का कोई निशान नहीं होता।

आज जब जलवायु संकट, वायु प्रदूषण और पर्यावरणीय जोखिमों की रफ़्तार भयावह हो चुकी है, तब यह समझना ज़रूरी है कि विकास केवल आर्थिक वृद्धि तक सीमित नहीं हो सकता। कोई भी बुनियादी ढांचा परियोजना तभी सच्चे मायनों में “हरित” कहलाएगी, जब उसके डिज़ाइन में प्रकृति का सम्मान और संतुलन पहले से शामिल हो। बाद में सुधार की कोशिशें केवल दिखावा बन जाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी केवल महाराष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के नीति-निर्माताओं और परियोजना नियोजकों के लिए चेतावनी है। मेट्रो रेल हो या सौर ऊर्जा ग्रिड कोई भी “ग्रीन” परियोजना पर्यावरण को प्रभावित करती है। इसलिए यह अनिवार्य है कि हर ऐसी परियोजना अपने वास्तविक पर्यावरणीय प्रभावों की जिम्मेदारी ले और उन्हें न्यूनतम करने के ठोस कदम उठाए।हरित विकास को लेकर सबसे बड़ी भूल यही है कि इसे अतिरिक्त बोझ समझा जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि वृक्षारोपण, जैव विविधता की रक्षा और कार्बन उत्सर्जन को घटाने जैसे उपाय एक दीर्घकालिक निवेश हैं। ये कदम न केवल प्रकृति की सेहत सुधारते हैं, बल्कि आर्थिक स्थिरता और समाज के स्वास्थ्य को भी सुरक्षित करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का ये रुख इस बात की याद दिलाता है कि भविष्य का भारत केवल “निर्माण” से नहीं बनेगा, बल्कि “जिम्मेदार निर्माण” से बनेगा। अब वक्त है कि सरकारें अपनी नीतियों में ऐसे प्रावधान शामिल करें, जो हर बड़ी परियोजना को पारिस्थितिक दृष्टि से सशक्त और संतुलित बनाएं। यदि कोई परियोजना भूमि, जल या जैव विविधता पर प्रतिकूल असर डालती है, तो उसकी क्षतिपूर्ति भी उसी गंभीरता से होनी चाहिए। हरित परियोजना वही है जो “ग्रीन टैग” की कसौटी पर खरी उतरे। यदि किसी मेट्रो परियोजना में हज़ारों पेड़ काटे जाएँ और बदले में लगाए गए पौधे कुछ महीनों में सूख जाएँ, तो वह परियोजना चाहे कितनी भी आधुनिक क्यों न हो, उसे हरित नहीं कहा जा सकता। विकास की असली परिभाषा वही है, जिसमें सड़कें भी बढ़ें और छाँव भी बरकरार रहे जहाँ प्रगति और प्रकृति साथ-साथ चलें।
