■ सूर्यकांत उपाध्याय

एक भागवत कथा-वाचक ब्राह्मण एक गांव में कथा सुना रहे थे। उस दिन उन्होंने नंदलाल कन्हैया के सौंदर्य और उनके आभूषणों का अत्यंत मनमोहक वर्णन किया। उधर से गुजरता एक चोर भी कथा सुनने बैठ गया। जब उसने आभूषणों का वर्णन सुना तो उसके मन में लालसा जाग उठी।
कथा समाप्त होने पर पंडितजी को खूब दक्षिणा मिली। उसे गठरी में बांधकर वे चले। थोड़ा सुनसान आया ही था कि चोर उनके सामने आ खड़ा हुआ।
चोर बोला-“ये श्याम-मनोहर कृष्ण कहां रहते हैं? उनके घर से गहने चुराने हैं। पता बताइए।”
पंडितजी डर गए। अपने सामान की चिंता हुई पर तुरंत बुद्धि लगाई। बोले, “उनका पता मेरे झोले में लिखा है। यहां अंधेरा है, थोड़ा उजाले में चलें तो देखकर बता दूंगा।”
चोर तैयार हो गया। पंडितजी ने चालाकी से अपनी गठरी उसी के सिर पर रखवा दी और भीड़-भाड़ वाले स्थान पर जाकर रुक गए। फिर थैले से पोथी निकाली और देखने का भाव बनाते हुए बोले, “वृंदावन चले जाओ। मुझे जब कृष्णजी मिले थे तो उन्होंने अपना धाम वृंदावन ही बताया था।”
चोर संतुष्ट हुआ और पंडितजी से आशीर्वाद लेकर चल पड़ा। रास्ता पूछते-पूछते वह वृंदावन की ओर निकल गया। यात्रा में उसने अनेक कष्ट सहे। जहां-जहां कन्हैया के मंदिर मिले, वहां-दर्शन को गया पर दर्शन भी किसलिए? आभूषण निहारने के लिए! कि आखिर कृष्ण के आभूषण कैसे होंगे।
मंदिरों में आभूषण देखते-देखते उसने इतने रूपों में भगवान की छवि देखी कि खुली आंखों से भी वही रूप उसे दीखने लगे। रात को मंदिर में ठहर जाता और वहीं प्रसाद खा लेता।
माखन-चोर भगवान इस “आभूषण-चोर” पर रीझ गए। उसके मन में प्रभु के आभूषणों के प्रति जो कामना थी, वह अब अनुराग में बदल गई। गोपाल उसे जगह-जगह दर्शन देते। कभी बालरूप में, कभी आभूषणों से सजे स्वरूप में। पर चोर उन्हें नहीं लेता। उसे तो “असली” कन्हैया के आभूषण चाहिए थे।
चोर व्याकुल, “कब कन्हैया के धाम पहुंचूंगा?” और प्रभु भी व्याकुल, “यह इतना दूर क्यों जा रहा है, जब मैं रास्ते में ही इसे सारे आभूषण दे रहा हूं!”
आखिर वह गोकुल पहुंच गया। नदी किनारे भगवान ने गाय चराते हुए उसे वही बालरूप दर्शन दिया, जो उसने अनेक मंदिरों में देखा था। जितनी छवियां देखी थीं, सब एक-एक कर दिखा दीं आभूषणों सहित।
चोर उनके चरणों में गिर पड़ा। प्रभु ने आभूषण उतारकर दिए और मंद मुस्कान से बोले, “लो, इसके लिए व्यर्थ ही इतनी दूर चले आए। मैं तो कब से तुम्हें दे रहा था।”
चोर बोला, “अब आपको देख लिया तो आभूषणों की चमक फीकी पड़ गई। अब तो आपको ही चुराऊंगा।”
भगवान हंसे, “मुझे चुराओगे? कहां रखोगे?”
चोर सोचता रहा, पर कोई स्थान नहीं सूझा। मन में चिंता, “कहीं मैं इन्हें चुरा लूं और ठीक से रख न पाऊं, तो कोई और न चुरा ले!”
सोचते-सोचते उसे एक उपाय सूझा, “जब तक मैं यह न तय कर लूं कि आपको कहां रखूंगा, तब तक आप मुझे प्रतिदिन दर्शन देते रहिए ताकि भरोसा रहे कि मेरी ‘चोरी’ सुरक्षित है।”
भगवान खूब हंसे। बोले, “ठीक है, ऐसा ही होगा। लेकिन कुछ आभूषण तो ले लो।”
चोर ने मना कर दिया। प्रभु प्रतिदिन शाम उसे दर्शन देते रहे। वह अपने गांव लौट आया।
इधर पंडितजी कथा सुना रहे थे। चोर ने पूरी बात बताई। संदेह होने पर शाम को जब प्रभु दर्शन देने आए, तो उसने उनका एक आभूषण मांगकर पंडितजी को दिखा दिया। प्रमाण सिद्ध हो गया।
पंडितजी बोले, “भाई चोर, असली साधु तो तू है। मैं तो कान्हा का नाम लेकर केवल कथा कहता रहा और जीवन चलाता रहा। पर तूने तो उन्हें ही जीत लिया!”
