● सूर्यकांत उपाध्याय

रात के बारह बजे मोबाइल की घंटी बजी। फुसफुसाती आवाज आई”तैयारी हो गई?”
“हाँ, बस गहने और पैसे लेने हैं,” उसने जवाब दिया।
“डॉक्यूमेंट्स भी ले लेना… नया जीवन शुरू करना है,” उधर से कहा गया।
फोन रखते ही वह माँ की अलमारी से मंगलसूत्र, झुमके और चूड़ियाँ निकालने लगी। चूड़ियों के डिब्बे से माँ की तस्वीर गिर पड़ी। उसे उठाते हुए आँखें भर आईं। माँ की मुस्कुराहट जैसे कह रही थी- “लाडो, ये चूड़ा तेरे लिए ही रखा है…”
अब उसने पापा के रखे 75,000 रुपये देखे, जो छोटे भाई करण की IIT फीस के लिए लोन से लाए गए थे। उसे याद आया, “बेटी हुई तो मुझे सरकारी नौकरी मिली, ये मेरी भाग्यलक्ष्मी है,” पापा अकसर कहते थे।
फिर उसने कॉल किया।
“गहने, पैसे ले लिए?”
“ले लिए… पर बार-बार क्यों पूछ रहे हो?”
“खर्चे होंगे न, नया मोबाइल भी लेना है…”
कुछ देर चुप रही। फिर दृढ़ स्वर में बोली
“पहले कुछ बनकर दिखाओ। जब खुद दो महीने चला सको, तब नई शुरुआत करना… वरना भूल जाना मुझे।”
फोन काट कर गहने-पैसे लौटा दिए।
पापा के पास जाकर बोली
“पापा, मैं नौकरी करना चाहती हूं… ताकि करण की पढ़ाई में मदद हो सके।”
पापा ने भावुक होकर कहा-
“तू सच में मेरी भाग्यलक्ष्मी है, लाडो।”