- धर्मेन्द्र पाण्डेय

6 अगस्त 1945 की सुबह, जापान के शांत शहर हिरोशिमा पर एक बम गिरा लेकिन यह कोई साधारण बम नहीं था। यह मानव इतिहास का पहला अणु बम हमला था, जिसने पल भर में शहर को राख में बदल दिया। ‘लिटिल बॉय’ नाम के इस अणुबम ने लाखों जिंदगियां लील लीं और जो बच भी गए, वे जीवन भर मौत से बदतर पीड़ा झेलते रहे। यह केवल एक शहर की बर्बादी नहीं थी, यह मानवता की चेतना पर पड़े सबसे गहरे ज़ख्मों में से एक था।
इस घटना ने युद्ध की परिभाषा ही बदल दी। यह केवल सैन्य विजय नहीं थी, यह विवेक की पराजय थी। विज्ञान, जिसे मानव कल्याण के लिए विकसित किया गया था, वह उस दिन एक विनाशकारी हथियार बन चुका था। हिरोशिमा के बाद, 9 अगस्त को नागासाकी भी इस विनाश का शिकार बना। और तब से अब तक, यह सवाल हमारे सामने खड़ा है क्या हमने इतिहास से कुछ सीखा?
उत्तर स्पष्ट नहीं है बल्कि चिंताजनक है।आज दुनिया फिर उसी मोड़ पर खड़ी है, जहां से भविष्य एक बार फिर राख में बदल सकता है। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध अब चौथे वर्ष में प्रवेश कर चुका है। हजारों लोग मारे जा चुके हैं, लाखों विस्थापित हो चुके हैं। इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच लगातार बढ़ती हिंसा मानवीयता की सभी सीमाएं लांघ चुकी है। गाज़ा, आज एक जिंदा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता है।
सिर्फ यही नहीं, अफ्रीका के सूडान, कांगो, नाइजर, और एशिया के म्यांमार, यमन, सीरिया जैसे देश लगातार गृहयुद्ध, जातीय हिंसा और सत्ता संघर्ष की आग में झुलस रहे हैं। कुछ ही समय पहले भारत और पाकिस्तान के बीच भी एक सीमित टकराव हुआ यद्यपि यह शीघ्र थम गया लेकिन यह साफ इशारा है कि दक्षिण एशिया भी स्थायी शांति से कोसों दूर है। सबसे भयावह सच यह है कि इन संघर्षों में शामिल कई देश परमाणु सम्पन्न हैं। और अगर कहीं, किसी क्षण, विवेक हार गया तो हिरोशिमा फिर दोहराया जाएगा, इस बार शायद कई गुना अधिक विनाशकारी रूप में।
आज दुनिया को एक ऐसी मजबूत लेकिन संयमित आवाज़ की ज़रूरत है जो न केवल शांति की वकालत करे बल्कि उसका नेतृत्व भी करे। और भारत इस भूमिका के लिए सबसे उपयुक्त है।
यह वह देश है जहाँ महात्मा गांधी ने अहिंसा को राजनीतिक अस्त्र बनाया, जहाँ बुद्ध ने करुणा और शांति का मार्ग दिखाया और जहाँ लोकतंत्र ने संवाद और सहअस्तित्व को जनमानस में गहराई से बिठाया।
भारत की ‘नो फर्स्ट यूज’ नीति केवल एक सैन्य सिद्धांत नहीं है यह एक नैतिक प्रतिबद्धता है, जो बताती है कि शक्ति का अर्थ युद्ध नहीं, संतुलन है। भारत को ज्यादा बड़े स्तर पर वैश्विक मंचों पर शांति की पैरवी करनी होगी, युद्धरत पक्षों के बीच मध्यस्थता का कार्य करना होगा और इस अराजक दौर में संयम, करुणा और विवेक की मशाल थामनी होगी, क्योंकि हिरोशिमा की राख सिर्फ अतीत नहीं है, वह भविष्य को जगाने वाली चेतना है।
हर वर्ष जब 6 अगस्त आता है, तो वह हमें याद दिलाता है कि शांति कोई विकल्प नहीं, आवश्यकता है। और इस आवश्यकता को पूरा करने का रास्ता भारत से होकर जा सकता है, यदि हम चाहें तो।