● दवा में बूस्टर का काम करता है यह इफेक्ट
● विश्वयुद्ध में हो चुका है प्रयोग, कई रोगों में सकारात्मक असर
■ अभय मिश्र

प्लेसिबो इफ़ेक्ट एक ऐसी मनो-शारीरिक प्रतिक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति को यह महसूस होता है कि उसकी तबियत में सुधार हो रहा है। लेकिन यह सुधार वास्तव में दवा या उपचार के कारण नहीं बल्कि उसके विश्वास और उम्मीद के कारण होता है कि उपचार असर करेगा।
मान लीजिए, किसी व्यक्ति को सिरदर्द है। डॉक्टर उसे एक साधारण शुगर पिल (जिसमें कोई औषधीय तत्व नहीं है) देते हैं और कहते हैं, ‘यह बहुत असरदार दवा है, इससे आपका सिरदर्द ठीक हो जाएगा।’ अगर वह व्यक्ति दवा खाने के बाद सिरदर्द में राहत महसूस करता है,₹ तो यह प्लेसिबो इफ़ेक्ट है। दरअसल दवा नकली नहीं, असर मानसिक है। प्लेसिबो में असली दवा का सक्रिय तत्व नहीं होता लेकिन व्यक्ति का दिमाग शरीर में एंडोर्फिन या अन्य बायोकेमिकल्स रिलीज़ कर देता है जो दर्द कम कर सकते हैं या लक्षण घटा सकते हैं। अगर मरीज़ को यकीन है कि इलाज असरदार है तो शरीर खुद प्रतिक्रिया दे सकता है।
नोसीबो इफ़ेक्ट भी होता है
मेडिकल रिसर्च में नई दवाओं की जांच के लिए प्लेसिबो ग्रुप बनाया जाता है ताकि देखा जा सके कि असली दवा का असर सिर्फ विश्वास से अधिक है या नहीं। हालांकि प्लेसिबो इफ़ेक्ट उल्टा भी हो सकता है। इसे नोसीबो इफ़ेक्ट कहते हैं, जिसमें व्यक्ति को लगता है कि उपचार के साइड इफेक्ट होंगे और सिर्फ इस सोच के कारण वह वास्तव में असहज महसूस करने लगता है।
पहले प्लेसिबो इफ़ेक्ट के पीछे का न्यूरोसाइंस और कुछ प्रसिद्ध मेडिकल प्रयोगों की यात्रा करते हैं। इसमें दिमाग़ के ‘जादुई केमिकल’ भी शामिल हैं।प्लेसिबो इफ़ेक्ट का न्यूरोसाइंस क्या है?जब कोई व्यक्ति यकीन करता है कि उपचार असर करेगा तो दिमाग में कई तरह की बायोकेमिकल प्रक्रियाएं शुरू होती हैं, जैसे-एंडोर्फिन रिलीज़। ये दिमाग के प्राकृतिक दर्दनाशक हैं। प्लेसिबो लेने पर मरीज़ का मस्तिष्क एंडोर्फिन छोड़ सकता है, जो दर्द को कम कर देता है।
इसके अलावा डोपामिन ‘अच्छा महसूस कराने वाला’ न्यूरोट्रांसमीटर है। उम्मीद और विश्वास डोपामिन को बढ़ा सकते हैं, जिससे मूड और ऊर्जा में सुधार होता है।एमआरआई स्कैन से पता चला है कि प्लेसिबो लेने पर दर्द-प्रसंस्करण वाले हिस्सों (जैसे anterior cingulate cortex और prefrontal cortex) की गतिविधि बदल जाती है, मानो असली दवा ली गई हो।
साथ ही ऑटोनोंमिक नर्वस सिस्टम का असर यह होता है कि इससे दिल की धड़कन, ब्लड प्रेशर और पाचन जैसी गतिविधियों को नियंत्रित होती है। विश्वास का असर इस सिस्टम को भी बदल सकता है।

विश्वयुद्ध में हुआ प्रयोग
इससे संबंधित कुछ प्रयोग बड़े मशहूर हैं। बीचे़र का वर्ल्ड वॉर-II प्रयोग (1955)
युद्ध के दौरान, मोर्चे पर दर्द से कराह रहे सैनिकों को असली दर्द निवारक खत्म हो जाने पर नमक का पानी दिया गया। सिर्फ यह कहकर कि यह मजबूत पेनकिलर है।नतीजा यह हुआ कि लगभग 40 प्रतिशत सैनिकों को दर्द में वास्तविक कमी महसूस हुई।
कई रोगों पर सकारात्मक असर
पार्किन्सन रोग पर भी इसका प्रयोग हुआ है। 2001 में, एक रिसर्च में पार्किन्सन रोगियों को नकली दवा दी गई और MRI में देखा गया कि उनके दिमाग ने डोपामिन का उत्पादन बढ़ा दिया, जिससे लक्षणों में सुधार हुआ, सिर्फ इसलिए कि उन्हें विश्वास था कि असली दवा मिल रही है। घुटनों की सर्जरी पर एक अध्ययन में आधे मरीजों की असल सर्जरी हुई और आधों का केवल नकली ऑपरेशन (skin cut करके टांके लगा दिए, लेकिन कुछ सुधारा नहीं)। महीनों बाद दोनों समूहों में समान सुधार पाया गया यानी दर्द से राहत में विश्वास का बड़ा हाथ था।
दरअसल दवा और इलाज की वास्तविक प्रभावशीलता मापने के लिए डबल-ब्लाइंड प्लेसिबो कंट्रोल्ड ट्रायल ज़रूरी होता है। प्लेसिबो इफ़ेक्ट हमें बताता है कि दिमाग और शरीर एक-दूसरे से कितने गहरे जुड़े हैं। यह डॉक्टर-रोगी के भरोसे को भी वैज्ञानिक आधार देता है।