● सूर्यकांत उपाध्याय

सुबह से ही भागदौड़ में लगे शर्मा जी जैसे-तैसे ऑफिस पहुँचे ही थे कि डायरेक्टर के मुंहलगे चपरासी ने रास्ता रोक लिया, ‘सर ने आते ही मिलने को कहा है।’
आज देरी ज़्यादा हो गई थी। थोड़ा घबराए हुए वे केबिन में पहुँचे ही थे कि डायरेक्टर साहब गरज पड़े ‘शर्मा जी! इससे पहले कि आप कोई नया बहाना सुनाएँ, साफ सुन लीजिए। आज आप छुट्टी पर जाइए और जितनी समाजसेवा करनी है कीजिए। आपकी ये परोपकार की कहानियाँ सुन-सुनकर मैं तंग आ चुका हूँ। क्या फ़र्क पड़ता है आपकी समाजसेवा से? अगर नौकरी करनी है, तो ठीक से कीजिए।’
‘सर… सर…’शर्मा जी धीमे स्वर में कुछ कहना चाहते थे, मगर डायरेक्टर साहब ने उनकी बात अनसुनी कर दी।
आदेश मानते हुए शर्मा जी ने छुट्टी का आवेदन दिया और ऑफिस से बाहर आ गए। मन ही मन सोचने लगे, ‘अब घर जाकर भी क्या करूँगा? क्यों न उस बच्चे का हाल ही ले आऊँ, जिसे आज सुबह सड़क हादसे में घायल देखकर अस्पताल पहुँचाया था। उसी वजह से देर हुई और साहब की डाँट खा ली। शायद अब तक उसे होश भी आ गया हो।’
उनके कदम अनायास ही अस्पताल की ओर बढ़ गए। पहुँचते ही डॉक्टर मुस्कुराकर बोले, ‘अच्छी खबर है, बच्चे को होश आ गया है और उसके माता-पिता भी आ गए हैं। आइए, आपको उनसे मिलवाता हूँ।’
डॉक्टर ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘ये हैं शर्मा जी, जिन्होंने सुबह आपके बच्चे को यहाँ भर्ती कराया और समय रहते अपना रक्त देकर उसकी जान बचाई। अगर ये न होते तो… पता नहीं क्या हो जाता।’
इतना सुनते ही शर्मा जी ठिठक गए। सामने डायरेक्टर साहब खड़े थे, चेहरे पर गहरी शर्म और आँखों में नमी।
कंपकंपाती आवाज़ में वे बोले, ‘शर्मा जी… ये मेरा बेटा है। मैं आपको गलत समझ बैठा था। अब मुझे एहसास हो गया है कि फ़र्क तो पड़ता है… और बहुत पड़ता है… आपकी समाजसेवा से।
शर्मा जी, हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिए।’
सीख: सच्चे और निःस्वार्थ कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते। जैसे वृक्ष फल देने में, नदियाँ बहने में और गाय दूध देने में परोपकार करती हैं, वैसे ही हमारा जीवन भी तभी सार्थक है जब वह दूसरों के भले में लगे। इसलिए यह मत सोचिए कि आपके अच्छे कार्य से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि फर्क हमेशा पड़ता है और यही इंसानियत की पहचान है।