● हिमांशु राज

बरसात की वो भीगी शाम जब गाँव के एक कोने में बच्चा अपनी दादी के पास बैठकर चुपचाप पूछता है, ‘क्या हमारा आम का पेड़ भी बह गया?’ उस सवाल में मासूमियत के साथ एक गहरी चिंता छुपी होती है। दादी उसके बालों को प्यार से सहलाती है, मगर उसकी आंखों में बहती उस उम्मीद की जगह अब एक पुरानी, गहरी व्यथा की छाया होती है। बार-बार बादल फटने से पहाड़ अब पहले जैसे नहीं रहे। घने जंगलों के पतझड़ में जैसे जीवन की तमाम खुशियाँ बह गई हों। पहाड़ की मिट्टी में वो हरी-भरी ताजगी, जो कभी बच्चों के खेल और किसानों के सपनों की वजह थी, अब बिखरती सांसों के समान लगती है।
आसमान फिर खोल देता है अपनी नीली छत्रछाया, लेकिन पहाड़ के गहरे घावों को भरने में वक्त लगता है। मिट्टी की वो खुशबू, नदियों का कल-कल बहना, खेतों की हरियाली, और पेड़ों का सुकून जैसे धीरे-धीरे ही लौट पाता है। अगली बार जब बादल फिर गरजने लगते हैं, तो घबराहट गांव के दिलों को पहले से ही जोर से पकड़ लेती है। बच्चे बिना बताए तेजी से घर लौट आते हैं, खेतीबाड़ी के जानवरों को चराने नहीं भेजा जाता, और बुजुर्ग एकांत में बैठकर प्रकृति से दुआ माँगते हैं कि इस बार ये आकाश की बारिश ऐसी तबाही न लाए।
बादल फटना केवल एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। यह प्रकृति का वह स्वरूप है जो इंसान को उसके किए हुए कर्मों की याद दिलाता है। जब पहाड़ों पर जंगल कटते हैं, नदियाँ गंदली होती हैं, और फैलती आबादी नदी घाटियों में कमजोर निर्माण करती है, तब बादल फटते हैं तो वे इसका क्रोध पानी के रूप में बरसाते हैं। ये न केवल मिट्टी और पानी को बहाते हैं, बल्कि इंसान की चेतना को भी झकझोर देते हैं।
इस विनाश के बीच, पहाड़ी लोग अपनी सुरक्षा के लिए पुराने तरीकों को याद करते हैं, प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित करने की कोशिश करते हैं। वे जानते हैं कि पेड़ लगाना, नालों की सफाई करना, और जंगलों की सुरक्षा करना जीवन की रक्षा है। उनका यह ज्ञान वर्षों से परंपरागत रूप में चलता आया है। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक, सब इस बात को समझते हैं कि प्रकृति से मेलजोल ही अस्तित्व की कुंजी है।
विज्ञान और टेक्नोलॉजी भी अब इस आपदा को कम करने के लिए मददगार साबित हो रहे हैं। मौसम विभाग की त्वरित चेतावनी प्रणाली, स्मार्ट तकनीकें, और स्थानीय स्तर पर तैयार की जा रही बचाव योजनाएं इस विनाश को रोकने की दिशा में एक उम्मीद की किरण प्रस्तुत करती हैं। मगर असली लड़ाई तो इंसान के अंदर की जिम्मेदारी और समझदारी की है, जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रख सके।
अंत में, बादल फटना एक ऐसा विषय है जो प्रकृति-मानव सम्बन्ध की गहरी कहानियाँ कहता है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारा अस्तित्व हमारे पर्यावरण के साथ जुड़ा हुआ है। यदि यह संतुलन टूटता है, तो प्राकृतिक आपदाओं का विनाश बढ़ता है। बचाव हेतु हम सभी को- चाहे वह स्थानीय निवासी हों, प्रशासन, वैज्ञानिक या आम इंसान- मिलकर काम करना होगा। तभी पहाड़ों की हरी-भरी घाटियाँ फिर से खिल उठेंगी, हवा फिर से ताज़गी से महकेगी और आसमान की बारिश केवल जीवनदायक होगी न कि विनाशकारी।
इस व्यथा में छुपी प्रेरणा यही है कि प्रकृति के साथ प्रेम और सम्मान बनाए रखो, वरना उसके बादल न सिर्फ बरसेंगे, बल्कि जीवन की नींव भी बहा ले जाएंगे। पहाड़ों के एक-एक बच्चे की मासूम आवाज़ में छुपी यह दुवा सुनो और उसके अनुसार कदम बढ़ाओ, ताकि भविष्य की पीढ़ियाँ भी उन्हीं आम के पेड़ों के नीचे अपनी खुशियों को संजो सकें।